पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/२४६

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पटना अधिवेशन २३१ आस्था रखकर ही आगे बढ़ना है, जिससे अश्रेयस्कर प्रयोजनोकी सिद्धिके लिए विज्ञानका दुरुपयोग न हो। वैज्ञानिक ज्ञानकोषको सभ्यताके विकास तथा सदुद्देश्योकी पूत्तिके निमित्त समाजकी सेवामे अर्पित होना चाहिये। प्रचलित भ्रान्त धारणाअोमेसे एक धारणा यह भी है कि समाजवाद प्रजातन्त्रके विरुद्ध है, इस धारणाका उन्मूलन होना चाहिये । मार्क्स एक महान् मानवतावादी था। व्यक्ति-स्वातन्त्यके लिए उसका आग्रह उल्लेखनीय है । उसका विश्वास था कि इतिहासकी एक दिशा है और उसके अनुसार इस युगमे क्रान्तिकारी सर्वहारा ही मानव-समाजका प्रतिनिधि है। उसने पूंजीवादको एक अनुचित सामाजिक व्यवस्था बतलाया था, क्योकि मुनाफेकी लिप्सामे वह व्यक्तिवाद और अहम्मन्यताको जन्म देता है । पूंजीवादी व्यवस्थाके अन्दर श्रमिकवर्ग अपनी श्रमशक्तिको दूसरी अन्य वस्तुप्रोकी तरह वेचनेको वाध्य होता है और अपने मानव-तत्त्वसे च्युत हो जाता है। इस वर्गको पुन उसने मानव- स्वरूपमे प्रतिष्ठित करना चाहा था। इस कार्यके लिए मुनाफेकी प्रवृत्ति और प्रति- दृन्द्वितापर आश्रित पूंजीवादी व्यवस्थाके स्थानपर एक मार्क्सवादी व्यवस्थाकी स्थापना करनी होगी, जिसमे मुनाफेकी लिप्साके स्थानपर एकता और सहयोगकी भावनाका विकास हो । मासके शब्दोमे 'सर्वहाराकी मुक्तिमे ही मानव-समाजकी मुक्ति सन्निहित है, क्योकि समाजके समस्त उत्पीड़न सर्वहारा वर्गमे ही केन्द्रित है।' रोजा लुक्समवर्गके शन्दोमे 'समाजवाद केवल रोटीकी समस्या ही नहीं है प्रत्युत एक विश्वव्यापी सास्कृतिक आन्दोलन है' । अधिनायकतन्त्र प्रातक पैदा करता है और मनुष्यको राज्यकी मशीनका एक पुर्जामात्र बना देता है । यह मनुष्यके गौरवको नष्ट करता है और व्यक्तित्वके विकासका अवसर नहीं देता। यह एक नये ढगके पातक और दासताको जन्म देता है, जिसमे नागरिककी अपनी कोई इच्छा नहीं होती और वह राज्यका एक पुर्जामात्र होता है। अवश्य ही, समाजवाद जो कि सामान्य-जनकी स्वतन्त्रताका हामी है, सरकारके इस स्वरूपकी स्वीकृति नहीं दे सकता। पाश्चर्य है कि कम्युनिस्ट लोगोके, जिन्होंने जनवादी मोर्चेके दिनोमे और फिर विगत महायुद्धके समय वैधानिक प्रजातन्त्रको रक्षा तथा युद्ध और फासिज्मके खिलाफ लड़नेके लिए समस्त प्रजातान्त्रिक शक्तियोके माथ मिलकर संयुक्त मोर्चा बनाया था, अपने देशमे ही एक निरकुश अधिनायकतान्त्रिक राज्य है, जो वहाँकी जनताके जीवनपर अपना पूर्ण नियन्त्रण रखता है। जनताके प्रजातान्त्रिक अधिकारोकी रक्षाके प्रश्नपर जनयुद्ध लडा गया और जीता भी गया । युद्धका मूल प्रश्न राजनीतिक प्रजातन्त्र और फासिज्मके बीच निपटारा करना था। प्रजातान्त्रिक स्वतन्त्रताको साधारण- जनकी किसी महत्त्वपूर्ण समस्याको व्यक्त करना चाहिये, तभी वह लाखो मनुष्योको साहसपूर्ण कार्योके लिए प्रेरित कर सकती है। यह नहीं कहा जा सकता कि विगत युद्ध यात्मरक्षाके लिए था। प्रश्न यह है कि 'यात्मरक्षा किस लिए ?' जनता अपने जनतान्त्रिक अधिकारोका आदर करती थी और अपने देशको फासिस्ट विचारधाराके आक्रमणसे बचाना चाहती थी। मानव-जीवन और सम्पत्तिकी इतनी वर्वादी और विनाशके बाद अधिर्नायक-तन्त्रको स्वीकार करना नितान्त पागलपन ही होगा। यह प्राशा की जाती