पटना अधिवेशन २३७ अाशापर उन्हे पुनः और अधिक सुविधाएँ प्रदान की गयी है । सरकारकी नीतियोमे निम्न मध्यवर्गकी मानसिक स्थितिकी छाया झलकती है जिसमे न तो जन-क्रान्तिके पथपर चलने- का साहस है और न अपने स्वार्थीको पूर्णरूपसे पूँजीवादी वर्गके स्वार्थोसे मिला देनेकी इच्छा ही है। यह वर्ग सदा ही इन दोनो परस्पर विरोधी स्वार्थोमे क्षणिक सामंजस्य स्थापित करनेकी चेष्टा करता रहता है और मुख्यत पूर्णरूपसे पूँजीवादी वर्गके प्रभावमे रहता है, परन्तु समय ऐसा है कि मौलिक परिवर्तनकी साहसपूर्ण और सुदृढ नीतिसे ही परिस्थिति सँभल सकती है । राज्योकी समस्या एक अन्य प्रश्न है जिसके सम्बन्धमे भी थोड़ा प्रकाश डालना यहाँपर अप्रासगिक न होगा । हिन्द-सरकारके रियासती विभागका यह दावा है कि उसने जादूका काम करके दिखाया है । भारतवर्पसे अग्रेजोका शासन समाप्त होनेके साथ साथ राजाप्रोके प्रभुत्वका अन्त होना भी अवश्यम्भावी था। छोटे राजाओके मामलोको तय करनेमे रियासती विभागको जो कूटनीतिक सफलता प्राप्त हुई उसकी हम सराहना कर सकते है, किन्तु इस कथनकी वस्तुथितिसे पुष्टि नही होती कि राज्योमे रक्तहीन क्रान्ति सम्पन्न हुई है । कतिपय रियासतोमे जनताने स्वय आगे कदम बढाया और राजाप्रोको अधिकार त्याग करनेके लिए बाध्य किया । यह भी आवश्यक है कि जिन रियासतोका प्रान्तोमे. विलय हुआ है वे पूर्णरूपसे उनमे समन्वित कर दी जायँ । काश्मीर और हैदरावादके राजवशोका अन्त होना चाहिये । इस देशमे जो विदेशी वस्तियाँ है उन्हे भारतीय संघका अंग बना देना चाहिये । हम गोग्राके अपने उन वीर सायियोको नही भूल सकते जो पुर्तगालके एक किलेमे सड रहे है और जिन्हे लम्बी अवधिकी सजाएँ दी गयी है। सभी जगह जनता विद्रोहके लिए तैयार है और इन विदेशी बस्तियोकी जनताका अपना राजनीतिक भविष्य निश्चित करनेका अधिकार अवश्य ही स्वीकार करना होगा। लोगोके मस्तिष्कको आन्दोलित करनेवाले प्रश्नोमे एक प्रश्न यह यह है कि हिन्दको ब्रिटिश राष्ट्रमण्डलके अन्तर्गत ही रहना चाहिये या उससे बाहर निकल आना चाहिये । आज ससार दो शक्तिशाली गुटोमे विभाजित है और अगर हम तृतीय विश्वव्यापी युद्ध से अलग रहना चाहते है तो इन दलोमेसे किसी एकमे भी हमारे लिए स्थान नहीं है। भारतीय राज तटस्थताकी नीतिके लिए वचनबद्ध है और यदि युद्ध आरम्भ होता है तो इसमे किसी प्रोरसे हिस्सा लेनेकी उसकी कोई इच्छा नही है । भारतवर्षका हित इस वातमे है कि वह युद्धसे अलग रहे और इस वातका प्रत्येक सम्भव उपाय किया जाय कि किसी प्रकार भी विश्वकी शान्ति भग न होने पावे । भारतवर्ष अपना यह 'पार्ट' तभी प्रभावकर ढंगसे अदा कर सकता है जब कि वह किसी भी दलमे अपनेको शामिल न करे । यदि वह किसी दलमे शामिल हो जाय तो इससे दोमेसे एक बडी शक्तिके विरोधका सामना करना पड़ेगा। ब्रिटिश राष्ट्रमण्डलका सदस्य होनेसे उसकी शान्ति एव युद्ध-सम्बन्धी नीतिमे हिस्सा लेनेका कर्तव्य भी अपने ऊपर आ जाता है, यदि ऐसी बात न भी हो तो इतना तो निश्चित ही है कि इससे तटस्थ रहनेकी हमारी ईमानदारीपर दूसरोका सन्देह बढ़ जायगा। इसके साथ ही ऐसे राष्ट्रमण्डलमे भारतवर्षके लिए कोई स्थान नही है जिसका एक सदस्य
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