पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/२७१

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२५६ राष्ट्रीयता और समाजवाद रह जाती है कार्यान्वित नही होती है । राष्ट्र-निर्माणका कार्य बड़े महत्त्वका है और जबतक जनता उत्साहपूर्वक इस कार्यमे सलन्न नही होती तवतक इस दिशामें प्रगति नही हो सकती। आज इसी उत्साहकी कमी है। गवर्नमेण्ट राष्ट्र-निर्माणके लिए प्रायः अपने कर्मचारियोपर ही निर्भर रहना चाहती है। कदाचित् उसकी दृष्टिमें जनता एक उपास्यदेवके तुल्य है जिसका नाम जप और जयघोप मात्र करना चाहिये, किन्तु जो निष्क्रिय और कूटस्थ है । किन्तु वस्तुतः जनता जड़ और अचेतन नहीं है; आजके यगमे तो वह नित्य-प्रति अधिकाधिक सक्रिय होती जाती है । जनता ही सप्टा और विधाता है। उसकी उपेक्षा नही हो सकती। सब निर्माण और मगलके कार्योमे उसके सहयोगको आवश्यकता है। इस सहयोगको प्राप्त करनेकी कोई विशेष चेप्टा नही हो रही है और न यह सहयोग प्राप्त ही हो सकता है जबतक कि उसके लिए भूमिका न तैयार कर ली जाय । जबतक निराशाका वातावरण रहेगा तवतक जनतामे उत्साह उत्पन्न नही होगा । अतः सबसे पहले इस वातावरणको बदलना होगा । वातावरणके बदलनेके लिए 'गवर्नमेण्टको सबसे पहले जनताको वस्तुस्थिति बतानी होगी और उससे त्याग करनेकी अपील करनी होगी। किन्तु गवर्नमेण्टके लोग सब्ज वाग ही दिखाया करते है और जनताको इस वातका निरन्तर आश्वासन देते रहते है कि बहुत जल्द ही दूध और शहदकी नदियाँ वहनेवाली है। कोई कहता है कि अपने प्रान्तका सहकारिताका आन्दोलन संसारमे सर्वश्रेष्ठ है; कोई कहता है कि अन्य देशोकी हालत हमारी अपेक्षा कही अधिक खराब है। चुनावके समय लम्बे-चौडे वादे किये गये थे और गवर्नमेण्ट वननेके बाद भी इनमे वृद्धि होती रही, किन्तु यह वचन अभीतक पूरे नही किये गये है और न उनमेसे बहुतोके पूरे होनेकी आशा ही है । वह वस्तुस्थिति बतानेसे घबराते है । इसका बुरा परिणाम यह होता है कि जब लोगोकी आशा भग्न हो जाती है और वह देखते है कि स्थिति सुधरनेके बदले विगडती जाती है तो वह निराश हो जाते है और यह निराशा धीरे-धीरे उदासीनतामे परिवर्तित होती जाती है । गवर्नमेण्टको यह चाहिये कि जितना उसके लिए शक्य हो उतना ही वोझ उठावे और अपनी कठिनाइयोको जनताके सम्मुख रखे । साराश यह है कि वर्तमान स्थितिके बदलनेके लिए मिथ्या प्रचारकी भावनाको छोड़कर ठोस सत्यको चाहे वह अप्रिय ही क्यो न हो, अपनाना होगा । यह पहली शर्त है । दूसरी शर्त यह है कि जनतासे त्याग और तपस्याके लिए कहनेके पूर्व नेताओ और कर्मचारियोको सबसे पहले इसका उदाहरण पेश करना होगा । जनताको मनोवृत्ति तबतक नही बदल सकती जबतक नेता और कर्मचारी अपने ऐशोआराममे काफी कमी करनेको तैयार न हो। यह एक ऐसी मोटी बात है कि जिसके समझनेमें कठिनाई नहीं होनी चाहिये । लेकिन यह तो आज शान दिखानेकी फिक्रमें है । मैं मानता है कि पूंजीवादी युगमें जहाँ रुपया सबका मानदण्ड हो रहा है शायद विदेशोमें अपनी कद्र करानेके लिए कुछ बाहरी तडक-भड़ककी जरूरत हो, किन्तु स्वदेशमे अपनी हैसियतसे ज्यादा दिखावा सर्वथा अवांछनीय है। हमारा देश गरीब है, हमको अपनी पूंजी सचित करनी है। अतः हमको किफायतसारीसे काम लेना चाहिये और अपना जीवन बहुत सादा रखना चाहिये । इस एक सुधारसे हमारे राष्ट्रीय