२६४ राष्ट्रीयता और समाजवाद कृषकोंका विद्रोह दास-प्रथाकी समाप्तिके बाद हम सामन्तवादी युगमें आते है । इस जमाने में भूमिके स्वामी सामन्तो और उनके लिए दासका काम करनेवाले कृपक दासोके वीच वर्ग-संघर्ष चलता है । प्रारम्भमे किसानोका क्रोध छिटफुट उत्पातोके रूपमे ही प्रदर्शित होता है । वे व्यापक पैमानेपर किसी विप्लवका संगठन नही कर पाते । पुराने जमानेके गुलामोकी तरह इन किसानोंके मालिक भी अलग-अलग होते है और किसानोको अलग-अलग खेतोपर काम करना पडता है । दूसरे, जिस जमानेकी हम बात कर रहे है उस जमानेमे आवागमनके साधनोका विकास भी आजकी तरह नही हो पाया था । अतएव प्रारम्भमें किसानोंके विद्रोहोका अलग-अलग स्थानोमे छोटे पैमानेपर छिटफुट रूपसे होना स्वाभाविक है । किन्तु आगे चलकर बार-बार अकाल पड़नेसे और किसानोकी आबादी बढ़नेसे जव किसानोका कष्ट परकाष्ठापर पहुँच जाता था और जमीनका पाना उनके लिए जीने मरनेका सवाल बन जाता था तब यह वर्ग-सघर्प व्यापक और उग्ररूप धारण करता था। किसान-वर्ग यह अनुभव करने लग जाता था कि सामन्तवादीवर्गसे छीनकर और सामन्तशाहीके स्थानपर किसानोका राज्य कायम करके ही उनकी समस्या हल हो सकती है। किसानोके व्यापक विद्रोहोके कुछ मुख्य उदाहरण जर्मनीका 'कृपक युद्ध' ( Peasant War of Germany) रूसका पूकोगाफ विद्रोह' और चीनका 'ताइपिङ्ग विद्रोह' ( Taiping rebellion ) है। किसानोंकी विचारधारा किन्तु, जैसा कि ऊपर कहे विद्रोहोके इतिहाससे पता चलता है, किसान लोग प्रचलित व्यवस्थाका विध्वंस अवश्य कर सकते है, वे नयी व्यवस्थाका निर्माण नही कर सकते । किसान आन्दोलनके प्रेरक आदर्ण किसानोको आगे देखनेकी अपेक्षा पिछले जमानेकी ओर देखनेको वाध्य करते है । किसानवर्ग सामन्तवर्गके हाथसे जमीन तो जरूर छीननेको तैयार हो जाता है, किन्तु जव विप्लवके बाद समाजके पुनस्सङ्गठनका सवाल आता है तो वह पुराने जमानेकी व्यवस्थाको ही फिरसे चालू करनेकी कोशिश करता है। पुराने जमानेमें गाँवोका प्रवन्ध पचायतोके जरिये होता था। खेतीका प्रवन्ध भी पंचायते करती थी। गाँवोकी जमीनपर व्यक्तियोका अलग-अलग स्वामित्व न होकर पंचायतका ही स्वामित्व समझा जाता था। इन पचायतोको सुविधानुसार जमीनका किसानोमे फिरसे बँटवारा करनेका अधिकार था। फ्रासमे इस प्रकारकी पंचायतोको कम्यून और रूसमे उन्हे मीर कहते थे । हिन्दुस्तानमे भी खेतीकी यह पंचायती प्रथा पायी जाती थी। जिन स्थानोमें इस पचायती प्रथाकी परम्परा किसानोके दिमागमे ताजी रही है वहाँके किसान विद्रोहके वाद फिरसे इसी पचायती प्रथाको लाना चाहते रहे है । किसानोका उद्देश्य राजतन्त्रका विनाश भी नहीं था। इसके विपरीत धार्मिक विचारोमे रँगे होनेके कारण वे राजाको ईश्वरका अवतार समझते थे और उनका विद्रोह भी प्राय ऐसे ही व्यक्तियोके नेतृत्वमे चलता था जो कि किसानोमें यह घोपणा करते थे कि ईश्वरने उनके मनमें नये बननेकी प्रेरणा की है । पूकोगाफ और ताइपिंग विद्रोहके
पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/३०९
दिखावट