पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/३०८

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वर्गसंघर्षकी अनिवार्यता २६३ कभी पूंजीपतियोंकी नाराजगी या धमकियोकी परवाह नहीं की। लाख मुसीवतोके झेलनेपर भी वह कभी अपने पथसे विचलित नही हुआ । उसका दर्शन एक जीता-जागता दर्शन है जिससे मनुष्यको एक नवीन स्फूर्ति और प्रेरणा मिलती है। जो आज समाजमे पददलित, तिरस्कृत, अशिक्षित और दरिद्र है उनमें नये जीवनका सचार करना, उनके तमाविष्ट हृदयोमे एक नवीन ज्योतिको जगाना मासके दर्शनका ही काम है । यही दर्शन करोड़ो लोगोको मुक्ति-पथका निर्देश करता है। इसी मार्गके पथिक होकर लोग एक नूतन समाजकी सृष्टि करेगे जहाँ मानव मानव होकर रहेगा और ससारकी कोई भी शक्ति फिर उसकी मानवताका अपहरण न कर सकेगी। वर्ग-संघर्षकी अनिवार्यता पहले यह बताया जा चुका है कि समाजमे विकास उसकी आन्तरिक प्रसङ्गतियोके जरिये होता है । यह असङ्गतियाँ जव अपनी चरम सीमापर पहुँच जाती है तो सामाजिक क्रान्ति घटित होती है । समाजको तरक्कीकी एक मंजिलसे दूसरी मजिलपर ले जानेवाली कोई रहस्यमयी शक्ति नही, वल्कि यही सामाजिक क्रान्ति होती है। यह भी कहा जा चुका है कि हमारे अवतकके सामाजिक ढाँचेमे, जो कि शोपक और शोपित वर्गोके आधारपर संघटित रहा है, यह क्रान्ति वर्गसंघर्पकी चरम सीमापर पहुँचनेपर ही घटित होती रही है । आगे हम इतिहासके कुछ उदाहरणोद्वारा अपने इस कथनकी पुष्टि करनेका यत्न करेगे । दासोंका विद्रोह वर्ग-संघर्पका इस प्रकारका पहला उदाहरण हमे पुराने जमानेके गुलामो और उनके मालिकोके वीचमे मिलता है । आजकलके मजदूरी पानेवाले गुलाम यानी मजदूर श्रेणीके लोग जिस तरह अपनेको भलीभाँति सुसगठित करके लडते है, पुराने जमानेके गुलामोकी लडाई ठीक इसी तरहकी नहीं पायी जाती क्योकि आजकलके मजदूरकी तरह वे लोग बड़े-बड़े कारखानोमे वडी तादादमे काम न करके अलग-अलग व्यक्तिगत रूपसे अपने- अपने मालिकोके यहाँ काम करते थे। ऐसी हालतमे उनपर जो अत्याचार होता था वह उन्हे तत्कालीन आर्थिक रचनाका अवश्यम्भावी परिणाम मालूम नहीं होता था । कितने ही मालिक अपने गुलामोके साथ दयालुताका व्यवहार भी करते थे; अत स्वभावत. गुलाम लोग इस भ्रमके शिकार हो जाते थे कि उनपर होनेवाला अत्याचार स्वामीविशेषके निर्दय स्वभावका ही परिणाम है किन्तु गुलामोमे चेतन संचार होनेके मार्गमे इस कठिनाईके होते हुए भी वर्ग-सघर्प वढता ही गया और समाजमे भयकर विद्रोह हुए। दास-क्रान्तिका प्रमुख उदाहरण प्राचीनकालके रोममे देखनेको मिलता है । दासताकी प्रथा प्राचीनकालके भारतवर्पमे भी पायी जाती थी और यह प्रथा पूरी तरहसे अग्रेजी राज्यके आनेके बाद समाप्त हुई है ।