पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/३२१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३०६ राष्ट्रीयता और समाजवाद ऐतिहासिक महत्त्वको जाना, किन्तु साथ-साथ उन्होने इनकी मर्यादा और भ्रान्तताको भी पहचाना, उन्होने यह भी देखा कि इन मतोके प्रतिपक्ष भी समान रूपसे एकांगी और भ्रान्त है। चाहे हम प्रतीतिके प्रमाणको अभ्रान्त माने और मनुष्यकी इच्छाको निविशेष और परिपूर्ण माने अथवा प्रतीतके प्रमाणको भ्रान्त माने, फल एक ही होता है । पहले पक्षमे मानवी इच्छा, दूरसरे पक्षमे ईश्वर, परिस्थिति आदि अनन्तका स्थान लेती है तथा इनका प्रतिपक्ष शून्यका स्थान लेता है । दोनो अवस्थानोमे हम प्रधान प्रश्नकी अवहेलना करते है, क्योकि हम अकारण ही प्रतिवादको एक कोटिको दवा देते है और यही मुख्य प्रश्न है, जिसका हमको विचार करना है । यह मानवी इच्छा और दैवका प्रतिवाद है । दार्शनिक, नीतिज्ञ तथा समाजशास्त्रविद् चाहे विविध रूपसे इस समस्याको हल करनेकी चेष्टा करे तथापि सबका इसमें ऐकमत्य होगा कि एक शृङ्गको ध्वस्त करके असामंजस्यसे भागना अनुचित होगा । चाहे आप मानवेच्छाके अस्तित्वका अथवा सत्ताका प्रतिपेध करे-चाहे उसे ईश्वर कहे या परिस्थिति या अन्य कुछ, प्रश्नका विवेचन नहीं होता। मार्क्सने स्पष्ट देखा कि प्रश्नका ठीक रूप नही है । वास्तविक जीवनकी भूमिमे मनुष्य और उसकी परिस्थितिके बीच क्रिया प्रतिक्रिया का सम्बन्ध होता है । परिस्थितिका सर्वशक्तिमत्त्व स्वीकार करनेका अर्थ मनुष्यका प्रतिपेध करना है । मानवी इच्छाकी निर्विशेष निरपेक्षता स्वीकार करना मनुष्यका सर्वशक्तिमत्त्व स्वीकार करने और परिस्थितिका प्राय. अभाव माननेके बराबर है । युक्तियुक्त फल प्राप्त करनेके लिए दोनोके सक्रिय अन्योन्य सम्बन्धको समझना होगा। हाब्ज ( Hobbes ) तथा अन्य भौतिकवादियोने पहले ही देख लिया था कि मानवी इच्छा-शक्तिमे निर्मर्यादित “स्वतन्त्रता" आरोपित करना सदोष है । शक्ति और स्वतन्त्रता अभिन्न है। प्रत्येक वस्तु उसी हदतक स्वतन्त्र है जिस हदतक उसको कार्य करनेकी शक्ति है, किन्तु प्रत्येक वस्तुकी उतनी ही शक्ति होती है और हो सकती है, जितनी शक्ति उसकी प्रकृति रख सकती है। वृक्ष अपनी वृद्धि करनेमे स्वतन्त्र है, किन्तु इसी शर्त के साथ कि उसकी परिस्थितियां वृद्धिके अनुकूल है । पुनः यह उसी तरह और उसी परिमाण मे बढ़ सकता है, जितना उसकी प्रकृतिके लिए सम्भव है । यह स्पष्ट है कि वृक्षमे पखने नहीं उग सकते, इसकी स्वतन्त्रता उसको नही है। 'मनुष्य अपनी परिस्थितिके अधीन है' इस वादका क्रान्तिकारी उपयोग तव था जव इसका उपयोग ऐसे राजाम्रोके विरुद्ध किया जाता था, जो प्रजाके साथ अन्याय और अत्याचारका व्यवहार करते थे और जो यह कहकर अपनी बर्बरताका समर्थन करते थे कि साधारण जन इस योग्य नहीं है कि उनको स्वतन्त्रता दी जाय । प्रजाका शोषण करनेवालोके विरुद्ध भी यह वाद उपयोगी सिद्ध होता था, जो यह तर्क करते थे कि यह मूर्ख अपने पैसों और अवकाशका सदुपयोग करना नही जानते और इसलिए इनकी नितान्त आवश्यकताओंकी