पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/३३१

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३१६ राष्ट्रीयता और समाजवाद इन सव कामोके लिए युवककी आदर्शप्रियता, उसकी निर्भीकता, उसका साहस और उसकी लगन चाहिये । यह तभी हो सकता है जब हम युवकके अधिकारको स्वीकार करें। यदि हम इस विषयमे अपने कर्त्तव्यका पालन न करेगे तो भय है कि हमारा युवक कही गैरजिम्मेदार न हो जाय । विद्यार्थी समाजकी उच्छृखलता विदेशी शासनसे लडनेका एक अनिवार्य फल है । एक अर्थमे कांग्रेस-कार्यकर्ता भी उच्छृखल थे। किन्तु स्वतन्त्रताकी जो कीमत हमको अदा करनी थी, उसमे यह भी शामिल था । युवकको अधिकार दो लेकिन अब समय आ गया है जब विद्यार्थियोको आत्म-शासनके महत्त्वको समझना चाहिये । आजकी उच्छृखलताके बदलेमे कोई सार वस्तु नही मिलती। इतना ही नहीं, उससे समाजका अनिष्ट ही होगा । यह उच्छृखलता युवकके अधिकारको स्वीकार करनेसे ही दूर होगी। इस सम्बन्धमे एक बात और विचारनेके योग्य है । युवक शक्तिका भण्डार होता है । जिस परिस्थितिमे रहता है उससे वह अत्यन्त प्रभावित होता है । वह भावप्रवण होता है तथा शूरता दिखानेके किसी अवसरको वह छोडना नहीं चाहता । यदि उसका समाज स्वतन्त्र होनेकी चेप्टा कर रहा है, तो वह उसीमे लग जाता है और यदि उसका समाज साम्प्रदायिक युद्धमे लगा है, तो वह उसका अगुअा वनना चाहता है । यदि इस दृष्टिसे देखा जाय, तो युवक न प्रगतिशील है और न प्रतिद्रियावादी । वह किसी भी नये काममे लगाया जा सकता है । शर्त यह है कि उसकी भावना पूरी होनी चाहिये और उसे कामका मौका मिलना चाहिये। इसलिए यदि हम युवककी शक्तिका सदुपयोग नहीं करेगे तो दूसरे उसको दुरुपयोग करेगे। फासिस्ट राष्ट्रोने युवककी शक्तिके महत्त्वको समझा और अपने उद्देश्यकी पूर्तिके लिए उसका दुरुपयोग किया। क्या हम राष्ट्र-निर्माणके कार्यके लिए युवकोके अधिकारको स्वीकार नही करेगे ? मैं यह जानता हूँ कि प्रत्येक अधिकारके साथ कर्तव्य होता है । किन्तु आजकी परिस्थितिमें अधिकारको स्वीकार करके ही कर्त्तव्यकी वात कही जा सकती है । स्थूल सत्य यह है कि आजकी किसी भी समस्याका समाधान युवकोके सहयोग विना समुचित रूपसे नही हो सकता। विद्याथियोंका राजनीतिमें स्थान हमारे देशमे विद्यार्थियोकी अनेक सस्थाएँ है । इनमेसे दोको छोडकर शेष सब साम्प्रदायिक है। दो सस्थाएँ जिनमे सब सम्प्रदायके विद्यार्थी सम्मिलित हो सकते है १. 'जनवाणी' ७ जनवरी १९४६ ई०