३२२ राष्ट्रीयता और समाजवाद नहीके बरावर है । इधर मैने सुन रखा था कि योग्य शिक्षक नहीं मिलते, उनका नितान्त प्रभाव है । एक अोर शिक्षाका विस्तार हो रहा है, दूसरी ओर नये स्कूलोके लिए अच्छे शिक्षकोके मिलनेमे बडी कठिनाई होती है। मालूम होता है अध्यापकके पेशेके लिए आकर्षण बहुत कम हो गया है । गत महायुद्धके जमानेमे कई नये विभाग खुले जिनमें प्रवेश पानेके लिए विशेष योग्यताकी आवश्यकता न थी, किन्तु पुरस्कार अध्यापकके पुरस्कार- की अपेक्षा कही अधिक था। सुशिक्षित युवकोकी कमीके कारण हर तरहके लोग इन विभागोमे भर्ती किये गये । युद्धके समाप्त होनेके पश्चात् भी नित्य नये विभाग खुलते 'जाते है । इन नयी नौकरियोका पुरस्कार भी अच्छा है । इनके लिए अवश्य ग्रैजुएट होनेकी शर्त रखी गयी है । जाँचसे मालूम हुआ कि इन नये स्थानोंके लिए अधिक योग्य व्यक्ति उम्मीदवार होते है, दूसरा कारण यही है कि इनको अच्छा पुरस्कार मिलता है । उधर वेतन ( Pay ) कमीशनने सव वर्गके कर्मचारियोके पुरस्कारमे वृद्धि की है। यह ठीक है कि अध्यापकोके पुरस्कारमे भी वृद्धि हुई है, किन्तु इनका पुरस्कार दूसरे वर्गोकी अपेक्षा कम है। यही कारण है कि अध्यापनके कार्यके लिए योग्य शिक्षकोंकी कमी होती जाती है। उच्च श्रेणीमे उत्तीर्ण होनेवाले प्रतिभाशाली विद्यार्थी प्रान्तीय सिविल सर्विस, इण्डियन सिविल सर्विस या पुलिस सविसमें चले जाते है, क्योंकि इनकी परीक्षा होती है और सिफारिशका वह महत्त्व नही रह गया है जो पहले था। जो इन स्थानोको नही पा सकते थे उनमेसे ही छंट-छुटकर कुछ अध्यापक हो जाते थे। किन्तु निम्न श्रेणीके अध्यापको- के मिलनेमे इतनी कठिनाई नही होती थी, पर इधर कुछ वर्षोंसे नौकरीके कुछ नये सीगे खुल जानेसे इनके मिलनेमे भी कठिनाई हो गयी है । यदि समाजमें लोकतन्त्रकी स्थापना करनी है तो जनताको शिक्षित करना आवश्यक हो जाता है । सार्वजनिक शिक्षा ही जनतन्त्रका आधार है । किन्तु यदि शिक्षाके सव विभागोके लिए योग्य शिक्षक नहीं मिलेंगे तो शिक्षाके विस्तारकी उचित व्यवस्था नही. की जा सकती। लोकतन्त्रके लिए प्राथमिक शिक्षा अव पर्याप्त नहीं समझी जाती। प्रत्येक व्यक्तिको कमसे कम मौलिक शिक्षा ( basic education ) मिलना चाहिये, जिसमें वह समाजके प्रति अपने कर्तव्यको समझ सके और शासनमे हाथ बँटा सके। प्राचीन कालमे शिक्षा देनेका भार ब्राह्मण, वौद्ध भिक्षु, पादरी या मौलवियोपर था । समाजमे उनके लिए बड़ा सम्मान था। केवल भोजन और वस्त्र लेकर ही वह समाजकी शिक्षाकी व्यवस्था करते थे। दानशील व्यक्ति और राज्यकी ओरसे इनकी संस्थानोको सहायता मिलती थी । गाँवमे भिक्षु या ब्राह्मण अपनी टोली खोल देते थे और वालकोको' प्रारम्भिक शिक्षा देते थे। जगह-जगह उच्च शिक्षाकी भी व्यवस्था थी। मठ या सघारामोमे बड़े पैमानेपर शिक्षाका आयोजन होता था। इस प्रकार पुराने समाजमे कम व्ययसे ही शिक्षाके प्रसारका कार्य होता था। जो शिक्षक थे उनको समाज आदरकी दृष्टि से देखता था । किन्तु प्राज मनुप्यका मापदण्ड रुपया हो गया है। जिसके पास अधिक धन है उसीका अादर है । स्कूलके अध्यापकको न अच्छा वेतन मिलता है, न समाजमे उसका आदर ही है और न उसको कोई अधिकार ही प्राप्त है । ऐसी अवस्थामे प्रतिभाशाली
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