पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/३५४

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आगरा विश्वविद्यालय ३३६ साथ आगे वढनेको तैयार है तो मुझे अपने देशका भविष्य गौरवमय प्रतीत होता है । इस शुभ संकल्पमे मै उनके साथ हूँ और मैं उनकी सफलताके लिए प्रार्थी हूँ और मेरी शुभ कामनाएँ उनके साथ है। अब आपकी अनुमतिसे विश्वविद्यालयकी शिक्षाके महत्त्वके सम्बन्धमे तथा उसकी क्या आवश्यकताएँ है इस सम्बन्धमे कुछ निवेदन करना चाहता हूँ। मैं ऊपर कह चुका हूँ कि लोकतन्त्रको स्थापनाके लिए सर्वसाधारणकी शिक्षाकी परम आवश्यकता है। किन्तु इसका यह आशय नही है कि इससे उच्चशिक्षाके महत्त्वमे किसी प्रकारकी कमी या जाती है । एक सम्पूर्ण शिक्षा-पद्धतिका हमको विकास करना है। शिक्षाके प्रासादकी आधार-शिला सर्वसाधारणकी प्राथमिक शिक्षा है। किन्तु जिस भवनका निर्माण इस आधारपर होता है उसके कई तल्ले है और सबसे ऊँचा तल्ला विश्वविद्यालयकी शिक्षा तथा हर प्रकारकी गवेषणाका है । राज्यका कर्त्तव्य है कि वह शिक्षाके प्रत्येक अगको पुष्ट करनेका प्रयत्न करे । शिक्षाका एक निरन्तर क्रम चलता रहता है और सब अग एक दूसरेसे सम्बद्ध है । अत: एकको दुर्वलकर हम दूसरेकी पुष्टि नहीं कर सकते । विश्वविद्यालयकी शिक्षामे उसका चरमोत्कर्ष पाया जाता है। एक सामान्य नागरिकका विकास करना तथा एक सामान्य सास्कृतिक दायादकी शिक्षाको सर्वसाधारणके लिए सुलभ कर देना सर्वसाधारणकी शिक्षाका उद्देश्य होना चाहिये । किन्तु विना उच्चशिक्षाका उचित विधान किये राष्ट्रीय जीवनके विविध क्षेत्रोके लिए विशेपज्ञ नही मिल सकते । आज विज्ञानका युग है । विज्ञानके द्वारा ही हमने प्रकृतिपर विजय पायी है। आज विज्ञानके वलसे मनुष्यकी दरिद्रता दूर की जा सकती है, वियावानको हम चमन बना सकते है । प्राज मानवी शक्तिकी महती वृद्धि हुई है । यह विश्वास होने लगा है कि यह शक्ति असीम है । आज कोई भी परिवर्तन असम्भव नही प्रतीत होता है । इसके कारण आधुनिक वैज्ञानिक तथा यान्त्रिक पद्धतिने उन लोगोकी दृष्टि मौलिक रूपसे वदल दी है जो राज्यकी शक्ति सचालित करते है । फलस्वरूप राज्यशक्तिके मदसे उन्मत्त लोगोने समाजके लिए दुर्घटनाएँ उपस्थित कर दी है जो भयावह है । आज समाजमे असामञ्जस्य है । यह असामञ्जस्य तबतक दूर नहीं होगा जवतक हम इस वातको स्वीकार नही करते कि मनुष्यकी शक्तिकी कुछ आवश्यक सीमाएँ है, वह अपरिमित नही है तथा मनुष्योका एक दूसरेपर जो अधिकार हो उसकी भी सीमा मर्यादित हो जानी चाहिये। एक ओर उद्योग-व्यवसायके मालिक है, दूसरी ओर श्रमिकोका समुदाय है । इनके हितोमे तीव्र विरोध है । यह विरोध जनतन्त्रको छिन्न-भिन्न करता है । यदि समता और जनतन्त्रको सवल बनाना है तो सामाजिक संगठनका वह नमूना जिसे १६ वी शताब्दीके व्यवसाय-सगठनने कायम किया है, वदलना चाहिये। मुझे खेद है कि मै विषयान्तरमे चला गया। मैं निवेदन कर रहा था कि आज हम अपनी समस्यायोको विज्ञानकी सहायताके विना नही हल कर सकते । अत. राष्ट्रकी उन्नतिके लिए विज्ञानकी शिक्षाकी उन्नति करना तथा गवेपणाकी समुचित व्यवस्था करना राज्यका कर्तव्य है । राष्ट्र-निर्माणका काम विविध विद्यानोके विशेषज्ञोंके विना,