अध्यापकोका कर्त्तव्य ३४३ मिलनेसे हमारे यहाँ योग्य शिक्षकोकी नितान्त कमी है और यह कमी तभी पूरी हो सकती है जब शिक्षकोकी आर्थिक अवस्थामे सुधार किया जाय । ऐसा करनेसे ही हम उनको समाजमे सम्मानका स्थान दिला सकते है । मैं एक बार फिर उन सव स्नातकोको वधाई देता हूँ जो आज डिग्री ले रहे है । विद्यालयमे रहकर वौद्धिक और नैतिक शिक्षा उन्होने प्राप्त की है। उसका उचित उपयोग करनेका अब समय आया है । मै आशा करता हूँ कि जिस किसी क्षेत्रमे वह काम करे वह कार्यकुशल सिद्ध होगे और अपने व्यवहार और चरित्रसे अपने विश्वविद्यालयका गौरव वढावेगे। मै उनकी उन्नतिकी कामना करता हूँ और प्रार्थी हूँ कि उनको जीवनमे सफलता प्राप्त हो । अध्यापकोंका कर्तव्य सर मॉरिस गॉयर, स्वागत-समितिके अध्यक्ष एवं सदस्यो, देवियो तथा सज्जनो, विश्वविद्यालयोके अध्यापकोके इस सम्मेलनका सभापतित्व करनेके लिए जो दया और उदारताके साथ आपने मुझे आमन्त्रित किया है उससे मैं अपनेको गौरवान्वित समझता हूँ। आपलोग देशके विभिन्न भागोसे पधारे है एक ऐसी समस्याका समाधान करनेके लिए जो आप सवकी सार्वजनिक समस्या है, किन्तु इससे भी बढकर आपलोगोके पधारनेका हेतु है अपने अन्दर भावनानोका वह एकीकरण करना जिसके द्वारा आप अपने उद्देश्योको प्राप्त कर सके और उन आदर्शोको चरितार्थ कर सके जो आप सबके आदर्श है। मै एक विश्वविद्यालयका अध्यक्ष हूँ, पर मेरा काम मुख्यत शासनात्मक है। फिर भी मैं आपको विश्वास दिलाऊँगा कि मै आपके साथ सम्बन्ध जोडनेका दावा कर सकता हूँ, क्योकि मेरे जीवनका सर्वश्रेष्ठ अश एक राष्ट्रीय विश्वविद्यालयमे अध्यापन करनेमे वीता है। मैं मुख्यतः अध्यापकोकी विरादरीमे ही हूँ और अध्यापक होनेके ही नाते मैं आपके आह्वानपर यहाँ उपस्थित हुअा हूँ। आपके सम्पर्कमे आने और प्राजकी सबसे अधिक जरूरी समस्याअोके विण्यमे विचार-विमर्श करनेके इस अवसरका मै स्वागत करता हूँ। यह सत्य है कि हमलोगोने राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त कर ली है, पर ऐसा प्रतीत होता है मानो अव भी हमलोग पुरानी दुनियामे ही है । यह कहते वडा खेद होता है कि मुझे देशमे अपने चारो ओर वह युवकोचित उल्लास और साहसका वातावरण नही दीखता जिसके द्वारा एक नवजात राष्ट्र अनुप्राणित होता है । ऐसा लगता है कि अभी हमलोगोमे अपने नये जन्म और नयी स्थितिकी चेतना नही जागी है । खेदकी बात है कि हम पुरानी विचारधारामे ही पडे है और अपने नये उत्तरदायित्व और कर्तव्योको ठीक-ठीक • १ ८ नवम्बर सन् १९४७ ई० को पदवीदानके अवसरपर दिया हुआ भाषण ।
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