३४४ राष्ट्रीयता और समाजवाद नही समझ रहे है । हमारे विचार-क्रममे गति नहीं है और हममे वह सामाजिक चेतना भी नही है जिसके द्वारा ही हम अपनी समस्याओको ठीक तरहसे समझ सकते है । हम ऐसे समयमे है जो सतत परिवर्तनका युग है । इसमे अब गतिहीन जड़ीभूत समाजकी मध्ययुगीन भावनाका कुछ काम नही रहा, और यदि हममे अपनी नयी परिस्थितियो और नयी आवश्यकताओंके साथ सामंजस्य स्थापित करनेकी बुद्धिमानी और साहस नही है तो फल अवश्य ही घातक होगा । यदि हम सर्वनाशसे बचना चाहते है तो हमे इस नयी चुनौतीका सामना करना ही है और यह तभी सम्भव होगा जब हम आत्मपरितोषकी वृत्ति और बौद्धिक जड़त्वको त्यागकर वर्तमान समस्याको नयी रुचि एवं नये दृष्टिकोणसे देखना प्रारम्भ करें। इस सम्बन्धमे अध्यापकोका दायित्व सबसे बढकर है । हमलोग नवभारतके नागरिक बननेके पात्र नही रहेगे यदि हम इस अवसरके स्तरतक ऊपर उठ न सके और अपने कर्तव्योका पालन नैतिकताके साथ न करें। इस लक्ष्यकी सिद्धिके लिए हमे पहले अपना शिक्षा-सिद्धान्त फिरसे निर्धारित करना होगा और नये ढंगसे शिक्षा-पद्धति चलानी होगी। मध्ययुगीन शिक्षामे धनिक-वर्गकी प्रधानता थी, अब इस युगकी शिक्षा मुख्यत जनतन्त्रात्मक होगी। यदि हम अपना जीवनक्रम सुखमय और सुव्यवस्थित वनाना चाहते है तो हमे शिक्षा-सम्बन्धी नवीन सिद्धान्त और जीवन-सम्बन्धी नवीन मान्यताएँ स्वीकार करनी होगी। शिक्षाका सच्चा ध्येय ऐसे व्यक्तित्वके निर्माण एवं विकासमे सहायता पहुँचाना है जिसमे ज्ञान, सहज प्रवृत्तियाँ और भाव एकीभूत होकर एक सम्पूर्ण जीवन बने । साथ ही इस पूर्ण विकसित व्यक्तित्वके लिए यह आवश्यक है कि सामाजिक जीवनके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हो । समाजका अङ्ग होकर ही व्यक्ति अपनी पूर्णता प्राप्त कर सकता है। हमारी गति शनैः-शनैः एक विश्व-समाजकी अोर है, और यदि हम इस विश्व-समाजके नागरिककी भाँति रहना किंवा व्यवहार करना नही सीख जाते, तो आनेवाले युगकी चुनौतीका सामना हम नही कर सकेगे। इसके साथ ही सामाजिक और आर्थिक संस्थाएँ उत्तरोत्तर इतनी पेचीली होती जा रही है कि यदि प्रत्येक नागरिक वर्तमान समस्याप्रोकी ओर अपेक्षित अभिरुचिके साथ ध्यान नही देगा, तो हमें दुखद स्थितिका अनुभव करना होगा । अतएव अध्यापक- वर्गको नये संसारमे वहुत महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्यपालन करने है । अब वे जनताके प्रतिदिनके जीवनसे पृथक् नही रह सकते। उन्हे समाजकी वौद्धिक एवं व्यावहारिक समस्याप्रोके सम्बन्धमे सतर्क और सचेष्ट रहना होगा। विश्वविद्यालयका वह पुराना वातावरण जिसमे केवल वौद्धिक अध्ययन एव विकास हुआ करता था, अव एकदम वदलना होगा। अध्यापकवर्गको अपनी उदासीनता, विराग, आलस्य और निष्क्रियताका त्याग करना पड़ेगा और देशकी राजनीतिक एवं सामाजिक समस्याग्रोके समाधानमे सक्रिय भाग लेना होगा। आगे बढ़कर उसे नये समाजकी व्यवस्थामे सक्रिय योग देना होगा। उसे यह निर्णय करना होगा कि पुरानी सस्कृति और शिक्षा-सिद्धान्तका कितना अंश सुरक्षित रखना है और कितना अश केवल रूढ़िगत महत्त्वका, पर यथार्थमे नि.सार होनेसे निकाल .
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