पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/३६७

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३५२ राष्ट्रीयता और समाजवाद करनी चाहिये कि वह समय दूर नहीं है जब हम इन नये विज्ञानोकी सहायतासे मानव- कल्याणके लिए समाजगत सम्बन्धोका नियमन कर सकेगे। इससे स्पष्ट हो जाता है कि हमारी सभ्यताकी रक्षा तभी हो सकती हे जव राष्ट्रके नेतृत्वमे शिक्षा नविप्यमें अधिकाधिक भाग लेने लगे। इतिहास बताता है कि राष्ट्रीय भावनाके निर्माणमे पाठशालाका बहुत महत्त्वपूर्ण भाग रहा है । पाठशालाके द्वारा राष्ट्रके प्रति श्रद्धाकी भावना सवल होती रही है और राष्ट्राभिमान और अपने राष्ट्रकी महत्ताके विषयमे अत्यधिक प्रास्था पैदा होती रही है । फासिस्ट देशोमे जहाँ नये नेताग्रोने जनतन्त्रीय एवं पार्लमेण्टरी भावनानोके विरद्ध जनताको, भड़काया और “अधिकारिणी जाति" की मिथ्या कल्पनाका सृजन किया, यह राष्ट्रीय भावना निम्नकोटिकी होकर जघन्य होती गयी। इन लोगोने स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्वकी भावनाप्रोपर प्रहार किया, इतिहासमें विपर्यय उपस्थित किया और नवयुवकोको वरगलाकर उन्हें पापपूर्ण सिद्धान्तोमे दीक्षित किया । आज ससारमें राष्ट्रगत लोभ और राष्ट्रगत घृणाकी भावना अत्यधिक हो गयी है । वडे खेदकी बात है कि हम युद्धके सवक भूल गये । निश्चय ही हम विकासक्रममे 'यूथ'को स्थितिसे वढकर राष्ट्रको स्थितितक पहुँच गये है और इस अर्थमे हमने कोई छोटा लाभ नहीं उठाया है। किन्तु अभी हमारी कुछ यूथगत सहज प्रवृत्तियाँ सवल है, गायद पहलेसे अधिक शक्तिमान् है; केवल वाह्य लक्षण, पताकाएँ किंवा नारे वदले है । अतएव आवश्यक है कि सभी शिक्षा- प्रवर्तक इस झूठी और भयावह राष्ट्रीयताकी भावनाका विरोध करे । पूर्णरूपसे जनतन्त्र व्यवहारमे लाया जाय तभी राष्ट्रीयताको भ्रामक मार्गोमे जानेसे रोका जा सकता है । अतएव हमारे लिए यही शोभन है कि विद्यार्थी-समाजके वीच जनतन्त्रीय अभ्यासके विचारो और भावनाअोका प्रचार करें, ताकि राष्ट्रके नवयुवकोके लिए जनतन्त्र एक वास्तविक धर्मगत बात बन जाय, यहाँ तक कि इसी भावनायोसे उनका सारा जीवनक्रम एवं व्यवहार अनुप्राणित हो। एक और बात है जिसकी चर्चा इस भापणको समाप्त करनेकेपूर्व करनी उचित होगी। अध्यापकोका काम केवल वुद्धि-सम्बन्धी शिक्षा देना और चरित्रके विकासमे योग देना ही नही है। उन्हें अपने छात्रोमें समाजके प्रति दायित्वकी भावना भी पैदा करनी है । किन्तु विश्वविद्यालयोके विस्तारके कारण और पुराने विश्वविद्यालयोकी जन-सख्या चरमावधितक पहुंच चुकी है इस कारण अध्यापकोका यह काम अधिक कठिन हो गया है। छात्रो और अध्यापकोके वीच सम्पर्कके अवसर दिन प्रतिदिन कम होते जा रहे है । छात्रावासोमे स्थानकी कमीके कारण भी विश्वविद्यालयोको गुरुकुल ( residential universities ) वनाना दुस्साघ्य एव असम्भव हो रहा है । ट्यूटोरियल क्रम वडा खर्चीला है और कही-कही तो यह विचार किया जाता है कि इसके द्वारा भी अभीप्ट सिद्ध नही हो सकेगा। इस वातकी चर्चा करनेमे मेरा अभिप्राय यही है कि और वातोके साथ आप इस विपयपर भी विचार करे। आप इस समस्याका चाहे जो समाधान निकाले, इसका कोई कारण नहीं दिखायी देता कि प्रस्तुत अवसरोका उपयोग विद्यार्थी-समाजमें