पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/३७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रगतिशील साहित्य खोज करनेकी आवश्यकता नही है । आज सारा ससार एक इकाईका रूप धारण कर रहा है। सभी देशोकी समस्याएँ बहुत कुछ समान-सी है । पूंजीवादी शोषणसे त्राण पानेकी समस्या ही संसारके अधिकाश देशोकी समस्या है । यह स्पष्ट है कि हमारे देशमे आज जो परिस्थिति है, वह दूसरे जिन देशोमे हमारे देशसे पूर्व प्रायी और उस परिस्थितिका जो हल दूसरे देशोने पहले निकाला, उन देशोसे हमे प्रेरणा ग्रहण करनी ही होगी। नवीन या विदेशी होनेके कारण ही किसी जनकल्याणकारी विचार या मूल्यका परित्याग नहीं किया जा सकता । संस्कृतियाँ जब जीर्ण पड जाती है, तो नयी संस्कृतियोके साथ संघर्ष होनेसे ही उनका कायाकल्प होता है । अपने पुराने रत्न जो कर्ममे रहते है, वे भी इस सघर्पसे परिष्कृत होते है । जब कि सारा विश्व आज पूँजीवादी विपमताकी चक्कीमे पिसते हुए समान यातना भोग रहा है, यह स्वाभाविक है। इस यातनासे परित्राण पानेके लिए एक समान विचारधारा अपनायी जाय । जो लोग नवीन मूल्योको ग्रहण करनेसे भागते हैं और विचारधारा-सम्बन्धी सघर्पसे घबराते है, वे अपनेको विकासके पथसे विरत करते है । समाजमे विभिन्न स्वार्थोके संघर्पके कारण निरन्तर परिवर्तन होता रहता है और इस संघर्पके फलस्वरूप ही समाज विकासके पथपर नये कदम वढाता है। यदि क्रमागत विचारो और संस्थानोको विना आलोचनाके स्वीकार कर लिया जाय तो भावी विकासका मार्ग अवरुद्ध हो जाता है । समाजके अन्तर्गत विभिन्न स्वार्थोके सघर्प और उसके फलस्वरूप समाजमें होनेवाले परिवर्तनकी प्रक्रियाका अध्ययन करके हम सामाजिक विकासमे वोधपूर्वक सहायता दे सकते है। पूंजीवादके ह्रासके इस युगमे और महायुद्धके उपरान्त राष्ट्रीयताका अन्त नही हो रहा है-जैसा कि कुछ लोगोका विचार है । प्रत्येक युद्धके पश्चात् राष्ट्रीयताकी जबर्दस्त लहर आया करती है। किन्तु राष्ट्रीयताकी भावना भी अभिशाप नही है, यदि वह संकीर्ण, आक्रमणशील राष्ट्रीयता न हो और विश्व-धर्मसे मर्यादित होकर चल सके । साहित्यिकोका कर्तव्य जनताको चिन्ताशील वनाना और मर्यादित राष्ट्रीयताके सच्चे रूपको समझाना है । उस सकुचित, विकृत राष्ट्रीयतासे जनताको छुटकारा दिलाना है जिसमे जाति अथवा देशको अनावश्यक और अस्वाभाविक प्रधानता दे दी जाती है और जो वर्तमान सामाजिक समस्याग्रोके हलमे वाधक है। एक लम्बी अवधितक स्वातन्त्र्य-सग्राममे रत रहनेके कारण हमारे देशमे राष्ट्रीयताका जोर होना स्वाभाविक है । किन्तु अनुभवने सिद्ध यही किया है कि इस राष्ट्रीयताकी जड़े गहरी नही थी। यह राष्ट्रीयता देशके बँटवारेको रोकनेमे असमर्थ रही और वॅटवारेके परिणामस्वरूप उसने जो रूप ग्रहण किया है, उसका समन्वय विश्व-धर्मके साथ करनेमे हमे काफी कठिनाईका सामना करना पडेगा । प्रान्त, समुदाय और जातियोंके वीच कलह भारतका पुराना रोग रहा है, बँटवारेके बाद वह फिर उभड़ना चाहता है । प्रगतिशील साहित्यिकोका कर्तव्य इस विकृत राष्ट्रीयताके खतरोको पहचानने- की चेतना जनतामे उत्पन्न करना है । ससारमे एक नये महायुद्धकी तैयारियाँ हो रही है । यदि महायुद्ध छिड़ा और हिन्दुस्तान और पाकिस्तानके रहनेवाले एक दूसरेसे बदला लेनेके ही चक्करमे रहे तो दोनोका विनाश निश्चित है। यदि हम चाहते है कि आनेवाले