पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/३७७

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३६२ राष्ट्रीयता और समाजवाद भीतर भी प्राचीन वहुत कुछ बना रहता है । नवीन और प्राचीनमें एक नैरन्तर्य, एक शृङ्खला, एक परम्परा बनी रहती है । पूँजीवादमे भी बहुत दुर्वल और क्षीण रूपमें सामन्तवाद वहुत दिनोतक वर्तमान रहता है और समाजवादकी स्थापनाके साथ भी बहुत दिनोतक पूंजीवादको कतिपय विणेपताएँ सम्वद्ध रहेगी। विनाश और निर्माणके क्रममें अतीत, वर्तमान और भविप्यके वीच उनको आपसमे जोड़नेवाली एक अटूट कड़ी वनी रहती है । प्रगतिशील साहित्यक इस ऐतिहासिक सत्यको हृदयंगम करते हुए अतीतका सर्वथा परित्याग नही करता; साधक तत्वोको वह चुन लेता है, वाधक तत्वोंका परित्याग करता है । मनुप्य स्वभावत. परम्परापूजक होता है और जो जाति जितनी ही प्राचीन होती है, उसके भीतर अपनी संस्कृतिकी श्रेष्ठताकी भावना उतनी ही अधिक बद्धमूल होती है । अतः भारत-जैसे प्राचीन देशमे हमे नवीन संस्कृतिके निर्माणकी दृष्टिसे अतीतके साधक एवं समर्थक तत्वोका उपयोग करना ही चाहिये । अतीतकी अनेक विचार-पद्धतियाँ जो आज हमे प्रतिगामी प्रतीत होती है, अपने समयके समाजके लिए वडी कल्याणप्रद रही है । भौतिकवाद तथा यथार्थवादको मानकर चलनेवाली विचारधाराएँ ही जन-कल्याणके मार्गका अनुसरण करती रही है और इसके विपरीत श्राध्यात्मिक अथवा 'विज्ञानवादी' विचार-धाराएँ सदैव अप्रगतिशील रही है, ऐसा सोचना उचित न होगा । विज्ञानवाद भी विशेष कालमे प्रगतिशीलताका द्योतक था । उदाहरणके लिए हम बौद्धकालकी. अप्रतिष्ठित निर्वाणकी कल्पनाको लें । निर्वाणकी इस कल्पनाके अनुसार साधक निर्वाणमे प्रवेशकी क्षमता रखते हुए भी सामाजिक कल्याणकी भावनासे प्रेरित होकर अपनेको उससे वचित रखता है, जब कि असंख्य जीव दु.खसे आहत हो और क्लेश-पाशमें फंसे हुए हो, ऐसी अवस्थामे केवल अपने वैयक्ति मोक्षकी ओर ध्यान देना उसे क्षुद्र प्रतीत होता है । निष्काम कर्मकी भावना भी इसी कालमे जन्म लेती है । कर्म बन्धनका हेतु है । विना कर्मका परित्याग किये हुए मनुष्य आवागमनके चक्रसे छुटकारा पाकर मोक्षकी प्राप्ति नही कर सकता । किन्तु विना कर्ममे प्रवृत्त हुए साधक जन-समूहका उद्धार भी नही कर सकता । जन-कल्याणकी दृष्टिसे कर्ममें प्रवृत्त होनेकी आवश्यकता तथा कर्मके स्वाभाविक परिणामगत बन्धनोसे निर्लिप्त रहनेके उद्देश्यमें सामञ्जस्य स्थापित करनेकी दृष्टिसे निप्काम कर्मके सिद्धान्तकी उत्पत्ति हुई। प्रथम शताब्दी ईसा पूर्वसे चतुर्थ एव पञ्चम शताब्दीका काल निश्चय ही भारतीय इतिहासका एक अत्यन्त गौरवपूर्ण अध्याय है। इस कालमे भारतीय जीवनके प्रत्येक विभागमे सक्रियताके दर्शन होते है । इस समय निवृत्ति-मार्गमे विश्वास रखनेवाले भी प्रवृत्तिपथपर चलते दिखायी पडते है । भारतीय साधुअोने मध्य एशियामे भारतीय संस्कृतिके अखण्ड राज्यकी स्थापना इसी कालमे की थी। विदेशोसे भारतका व्यापारिक सम्बन्ध भी इसी कालमे सुदृढ हुआ। जहाँ हमें अपने देशके गौरवपूर्ण अतीतके उन तत्त्वोको ग्रहण करना है जो वर्तमान कालमें पुरुषार्थको प्रेरणा देनेवाले है, वहाँ आजकी अवस्थामे भार बननेवाली परम्पराग्रोका परित्याग कर हमे हल्का होना है और नवीन जीवनके विकासमान मूल्योको अपनाना है । ये नवीन मूल्य कहाँमे आते है, उनका उपक्रम या मूत्रपात कहाँसे होता है, इस वातकी