पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/३८०

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प्रगतिशील साहित्य किन्तु संघर्षके सम्बन्धमे निप्पक्ष सम्मति बना सकने और साहित्य-सृजनके लिए अवकाश प्राप्त करनेके लिए संघर्पमे सक्रिय भाग लेनेसे कलाकारको वचना पड़ता है । स्वास्थ्यप्रद साहित्य-सृजन ही जनान्दोलनमे कलाकारका योग है। नवीन समाजके निर्माणके लिए सघर्ष सभी क्षेत्रोमे हो रहा है । साहित्यिक क्षेत्रमे कलाकारोको उस साहित्यका विरोध करना है जिसकी दृष्टि केवल अतीतकी अोर है, जो प्राचीनता और परम्पराका अन्ध-पुजारी है, जिसकी आस्था विश्वके प्रति नही, वर्तमान भारतके प्रति नहीं, बल्कि प्राचीन भारतके किसी कल्पित विकृत रूपके प्रति है, जो सकुचित अकर्पणशील राष्ट्रीयताका प्रचार कर रहा है। इस प्रसंगमे प्रगतिशील कलाकारोको यह नही भूलना है कि उनकी रचनाएँ भोड़ा प्रचार न होकर मर्मस्पर्शी, प्रभावोत्पादक उच्च कलाकृतियाँ हो । कला सोद्देश्य होती है । प्रायः प्रत्येक रचनाके पीछे एक सन्देश होता है, इस व्यापक अर्थमे तो सभी कला-कृतियां प्रचारका साधन कही जा सकती है। किन्तु कलाकृतिको प्रभावोत्पादक बनानेके लिए यह आवश्यक है कि उसे प्रत्यक्ष प्रचारका साधन न बनाया जाय । दूसरी वात जिसे प्रगतिशील साहित्यिकोको ध्यानमे रखनी है, यह है कि जहाँ कथावस्तु और विवेचना उनकी अपनी वस्तु होगी और नवीन शैलियोको भी वे अपनायेगे, वहाँ दीर्घकालसे प्राचार्यो- द्वारा पुष्ट की जानेवाली शैली, टेकनिक, छन्द एव शब्द-विन्यास आदिकी भी वे सर्वथा उपेक्षा नही कर सकते । प्राचीन साहित्यकीटेकनिक सम्वन्धी विशेषताओको उन्हें अपनाना होगा। जैसा कि प्रारम्भमे कहा जा चुका है, सारा ससार आज शोषणको चक्कीमे पिसकर समान यातना भोग रहा है और उसकी मुक्तिकी स्थापनामे सहायता देना प्रगतिशील साहित्यका ध्येय है, मानव-मानकी एकता और उसकी सिद्धिके लिए शोपणमुक्त सामाजिक व्यवस्थाकी आवश्यकता इन आदर्शोकी भित्तिपर हमे एक नवीन सस्कृतिका निर्माण करना है। नवीन सस्कृतिके निर्माणमे हमे प्राचीन संस्कृतिके साथ उसकी परम्पराको भी दिखलाना है। हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति नवीन व्यवस्थाकी स्थापनामे सर्वथा वाधक न होकर अनेक अशोमे साधक है। मानव-मात्रकी एकता, 'वसुधैव कुटुम्बकम्'का आदर्श इस देशमे बहुत पुराना है । वस्तुत. जो कार्य श्रमण-धर्मने आध्यात्मिक क्षेत्र में मानवकी एकताको स्वीकार करते हुए किया था, वही कार्य भौतिक क्षेत्रमे समाजवादको स्वीकार करके हमे सम्पन्न करना है।' १. 'जनवाणी' अक्तूबर, सन् १९४८ ई०