सोवियत रूसकी एशिया-सम्बन्धी नीति ३८७ "हम प्रचार तो अवश्य करते है, पर इस प्रचारके लिए हमको कुछ खर्च नहीं करना पडता । अभी उस दिन कुछ चीनी विद्यार्थी मुझसे मिलने आये थे। मैने चाय पिलाकर उनकी वैसी ही खातिर की थी जैसी कि मैं आपकी कर रहा है । पर जब वे अमेरिकन लिगेशनमें अापके कौसलसे मिलने गये तव वे स्वयं उनसे नही मिले और एक निम्नश्रेणीके कर्मचारीको उनसे बात करनेके लिए नियुक्त कर दिया और वह कर्मचारी भी उनसे अच्छी तरह नहीं मिला । हमारा यही प्रचारका कार्य है । तुमलोग वेवकूफ हो । इतना भी नही जानते कि मनुष्यके हृदयपर किस प्रकार अधिकार पाया जाता है ।" यहाँपर हमे इस वातका विस्तारपूर्वक उल्लेख करनेकी आवश्यकता नही है कि किस प्रकार सोवियत रूसकी सहायतासे चीनकी राष्ट्रीय संस्था कुप्रोमिन्ताङ्गका फिरसे संघटन हुग्रा और चीनके मजदूर और किसान राष्ट्रीय आन्दोलनमे सम्मिलित हुए; और फलतं. चीनने अपने खोये हुए कुछ अधिकारोको फिरसे प्राप्त किया। चीनकी सन्धिके छ महीने बाद ही सन् १९२५ (विक्रम सं० १९८२) मे रूस और जापानकी सन्धि हुई जिसके जरिये रूसने सखलिन द्वीपके उत्तरी भागमे निकलनेवाले तेलके पचास फी सदी हिस्सेको जापानको देना स्वीकार किया, और अपने राज्यके भीतर खानोसे धातु निकालने और जंगलोसे लकड़ी इत्यादि लेनेकी रियायत दी । जापानने सखलिनके उत्तरी भागसे अपनी फौज हटा ली। दोनो पक्षोने एक दूसरेके विरुद्ध प्रचार कार्य न करनेका वचन दिया। इस प्रकार जापान और रूसमे मित्रता स्थापित हुई। सोवियत रूसकी एशिया-सम्बन्धी नीतिके प्रयोगका यह संक्षेपमे विवरण है। हमने देखा कि एक समय इस नीतिकी सफलता हर दिशामे हुई और ब्रिटिश गवर्नमेण्टका प्रभाव एशियामे वहुत घट गया । इसी कारण सन् १९२१ (विक्रम सं० १९७८) में इंग्लैण्ड रूससे एक व्यापारिक सन्धि करनेके लिए विवश हुआ था । पर यह सन्धि अधिक दिनोतक टिक नही सकी। एक दूसरेकी शिकायत करने लगे कि सन्धिकी शर्ते पूरी नहीं की जा रही है और जव वोनरलाकी कजर्वेटिव गवर्नमेण्टके हाथमे इंग्लैण्डकी शासनकी बागडोर आयी तव आपसका झगडा और भी बढ गया । अग्रेजोने कई नयी मांगे पेण की जिनमेसे एक माँग यह भी थी कि काबुल और तेहरानसे सोवियतके प्रतिनिधि वापस वुला लिये जायें । इग्लैण्डने सोवियत रूसको लडाईकी धमकी भी दी थी। सोवियत लड़ाईके लिए तैयार नही था, इसलिए उसने प्रतिनिधियोके वापस बुलानेकी शर्तको छोडकर प्राय सव मुख्य-मुख्य शर्ते स्वीकार कर ली थी : इस तरह लडाई तो टल गयी, पर कोई वात निश्चित रूपसे तय न हो सकी और आपसके व्यवहामे रूखापन पाया जाने लगा। मासके रूरके आक्रमणके कारण इग्लैण्डके लिए रूससे तत्काल लडना लाभदायक न था। सन् १९२३ (विक्रम स० १९८०) मे इगलैण्डमे मजदूर सरकार आ गयी और उसके प्रधान मन्त्री रैमसे मैकडोनाल्डने सुलहकी बातचीत फिरसे शुरू की और बहुत वाद-विवादके
बाद आपसके झगडे बहुत-कुछ तय हो गये और अगस्त सन् १९२४ (विक्रम स० १९८१) के प्रारम्भमे दो सन्धियोपर हस्ताक्षर हुए, पर रैमसे मैकडोनाल्ड पार्लमेण्टकी स्वीकृति चाहते थे। पर पूर्व इसके कि यह विषय पार्लमेण्टमे विचारार्थ उपस्थित किया जाय, एक