पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/४०६

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यूरोपकी स्थिति ३९३ होनेपर ही, जिसके द्वारा सामान्य जनता अपनी परिपूर्णताका अनुभव करे, ससारमे शान्ति और सुख स्थापित हो सकता है । अव पुरानी आर्थिक पद्धतिसे काम नही चलनेका । स्वतन्त्र व्यापारका युग चला गया है । युद्धकालमे जो राज्यका नियन्त्रण वढ गया है वह युद्धकी समाप्तिपर विलुप्त नही हो जायेगा । व्यवस्थित योजना समाजकी स्वतन्त्रता- का अपहरण कर लेगी यदि यह योजना जनताके लाभके लिए प्रगतिशील शक्तियोद्वारा नही प्रस्तुत की जाती । पूंजीपतियो द्वारा तैयार की गयी व्यवस्थित योजना उनके एकाधिकारको सुदृढ करके लोकतन्त्रका अन्त कर देगी। दूसरी बात जो ध्यान देने योग्य हैं यह है कि आजकी अन्योन्याश्रित और परस्पर सम्बन्धित दुनिया उन खतरोको अव और नही उठा सकती जो स्वतन्त्र राज्यमे ( Sovereign States ) के अस्तित्वके कारण वढते जाते है । जबतक प्रत्येक महान् राष्ट्र अपने कुछ अधिकारोको छोड़नेको तैयार नही हो जाता, तवतक अन्तर्राष्ट्रीय समाज गठित नही हो सकता । राजनीतिक प्रश्नोका महत्त्व अधिक समझा जाता है, अार्थिक प्रश्नोका नही । किन्तु मौलिक प्रश्न आर्थिक है । यूरोपके छोटे-छोटे राज्य हो तो कुछ हर्ज नही, किन्तु यदि ये छोटे-छोटे राज्य आर्थिक और सैनिक दृष्टिसे एक दूसरेसे स्वतन्त्र रहना चाहे तो यूरोपमे शान्ति स्थापित करना सम्भव न हो सकेगा । अन्तर्राष्ट्रीय समाजकी स्थापनाके लिए राष्ट्रीयताका वर्तमान विकृत रूप बदलना होगा । उसका प्राधान्य सास्कृतिक क्षेत्रतक ही सीमित रखना होगा । राजनीतिक तथा आर्थिक क्षेत्रमे उसकी प्रधानता हानिकर होगी। राज्योका अधिकार अक्षुण्ण रखकर तथा वर्तमान अर्थनीतिका अतिक्रमण किये बिना हम ससारमे शान्तिकी स्थापना न कर सकेगे। एक बात और । ससारकी कल्याणकारी दृष्टिके साथ साम्राज्यवादका असामञ्जस्य है । अमेरिकाके प्रसिद्ध राजनीतिक स्वर्गीय वेडल विल्की ( Wendell Willkie ) के शब्दोमे "स्वतन्त्र" शब्द अविभाज्य है । यदि हम उसका उपभोग करना चाहते है और उसके लिए लडना चाहते है तो हमे सवको समान रूपसे स्वतन्त्रता प्रदान करनेके लिए तैयार रहना चाहिये-~चाहे वह अमीर हों या गरीव, चाहे वह हमसे सहमत हो या नही, चाहे वह किसी भी जाति या वर्णके क्यो न हो । ससारके सब भाग एक दूसरेसे सम्बद्ध है और कोई भी राष्ट्र अकेले अपने पूर्ण विकासको नहीं प्राप्त कर सकता। इन सिद्धान्तोको ध्यानमे रखकर यदि हम यूरोपकी अोर दृष्टिपात करे तो हमको पता चलेगा कि ये सिद्धान्त पूर्णरूपेण कार्यान्वित नही हो रहे है । प्रत्येक महान् राष्ट्र अपने अधिकारोको अक्षुण्ण रखना चाहता है । यूरोपको इकाई मानकर यूरोपके आर्थिक जीवनका एक नया संगठन बनानेकी ओर भी ध्यान नही है । यह ठीक है कि पूर्वी यूरोपके देशोकी पुरानी आर्थिक पद्धति नष्ट की जा रही है तथा पश्चिम यूरोपके देशोमे यत्रतत्र उद्योग-व्यवसायका समाजीकरण अथवा नियन्त्रण हो रहा है, किन्तु समग्र यूरोपको इकाई मानकर जनताकी दृष्टिसे एक नवीन व्यवस्था स्थापित करनेका विचार दृष्टिगोचर नही होता'। इसमे हेतु यह है कि युद्ध राष्ट्रीयताके भावको प्रबल कर देता है तथा परस्परका द्वेप और वैमनस्य मुख्य समस्याअोपरसे ध्यान हटा लेता है । लोग अपने क्षुद्र अधिकारोको