पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/४५०

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मेरे संस्मरण ४३७ / सिगरेट नही छुप्रा । हाँ, श्वासके कप्टको कम करनेके लिए कभी-कभी स्ट्रैमोनियमके सिगरेट पीने पड़े है । मेरे पिताजी सदा आदेश दिया करते थे कि कभी झूठ न बोलना चाहिये । मुझे इस सम्बन्धमे एक घटना याद आती है। मैं बहुत छोटा था। कोई सज्जन मेरे मामूंको पूछते हुए आये । मैं घरके अन्दर गया। मामूसे कहा कि आपको कोई वाहर बुला रहा है । उन्होने कहा कि जाकर कह दो कि घरमे नही है । मैने उनसे यह सन्देशा ज्यो का-त्यो कह दिया । मेरे मायूँ बहुत नाराज हुए। मैं अपनी सिधाईमें यह भी न समझ सका कि मैने कोई अनुचित काम किया है। इससे कोई यह नतीजा न निकाले कि मैं बड़ा सत्यवादी हूँ। किन्तु इतना सच है कि मैं झूठ कम वोलता हूँ। ऐसा जव कभी होता है तो लज्जित होता हूँ और बहुत देरतक सन्ताप वना रहता है । पिताजीकी शिक्षा चेतावनीका काम करती है । मैं ऊपर कह चुका हूँ कि मेरे यहाँ अक्सर साधु-संन्यासी और उपदेशक आया करते थे। मेरे पिताके एक स्नेही थे। उनका नाम था पं० माधवप्रसाद मिश्र । वह महीनो हमारे घरपर रहा करते थे। वह बँगला भाषा अच्छी तरह जानते थे। उन्होने 'देशेर कथा' का हिन्दीमे अनुवाद किया था। यह पुस्तक जब्त कर ली गयी थी। वह हिन्दीके बड़े अच्छे लेखक थे। वह राष्ट्रीय विचारके थे। मैं इनके निकट सम्पर्कमे आया । मेरा घरका नाम अविनाशी लाल' था । पुराने परिचित आज भी इसी नामसे पुकारते है । मिश्रजीपर बँगला भाषाका अच्छा प्रभाव पड़ा था । उन्होने हम सब भाइयोके नाम बदल दिये। उन्होने ही मेरा नान 'नरेन्द्रदेव' रखा । सनातन धर्मपर प्राय. व्याख्यान मेरे घरपर हुआ करते थे। सन् १९०६ मे जब मै एण्टेसमे पढ़ता था, स्वामी रामतीर्थका फैजाबाद आना हुआ और वह हमारे अतिथि हुए। उस समय वह केवल दूधपर रहते थे। शहरमे उनका व्याख्यान ब्रह्मचर्यपर हुआ था और दूसरा व्याख्यान वेदान्तपर मेरे घरपर हुआ था। उनके चेहरेपर बड़ा तेज था। उनके व्यक्तित्वका मुझपर बड़ा प्रभाव पड़ा और वादको मैने उनके ग्रन्थोका अध्ययन किया । वह हिमालयकी यात्रा करने जा रहे थे। मिश्रजीने उनसे कहा कि सन्यासीको किसी सामग्रीकी क्या आवश्यकता । इतना कहना था कि वह अपना सारा सामान छोडकर चले गये और पहाडसे उनकी चिट्ठी आयी कि "राम खुश है।" हमारे स्कूलमे एक बड़े योग्य शिक्षक थे। उनका नाम था-श्रीदत्तात्रेय भीकाजी रानाडे । उनका मुझपर वडा प्रभाव पडा। उनके पढ़ानेका ढंग निराला था। उस समय मैं ८ वी कक्षामे था। किन्तु अंग्रेजी व्याकरणमे हमारे दर्जेके विद्यार्थी १० वी कक्षाके विद्यार्थियोके कान काटते थे। मैं अपनी कक्षामे सर्वप्रथम हुआ करता था। मेरे गुत्जन भी मुझसे प्रसन्न रहा करते थे। किन्तु सस्कृतके पण्डित महाशय अकारण मुझसे और मेरे सहपाठियोसे नाराज हो गये और उन्होने वार्षिक परीक्षामे हमलोगोको फेल करनेका इरादा कर लिया। हमलोग बड़े परेशान हुए। उस समय मेरी कक्षाके अध्यापक मास्टर राधेरमण लाल स्कूल लाइब्रेरीके लाइब्रेरियन थे । इनका भी हमलोगोपर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा था । अपने जीवनमे एक बार यह विरक्त हो गये थे। इनके घरपर हमलोग प्रायः जाया करते थे। यह अपने विद्यार्थियोको वहुत मानते थे। लाइब्रेरीकी कुंजी मेरे