पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/४५१

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४३८ राष्ट्रीयता और समाजवाद सुपुर्द थी और मै ही पुस्तके निकालकर दिया करता था। मुझे याद पाया कि पण्डितजी दो वर्षके कैलेण्डर अपने नाम ले गये है । ख्याल आया कही इन्ही वर्पोके एण्ट्रेन्सके प्रश्नपत्रसे प्रश्न न पूछ बैठे। मैने अपने सहपाठियोके साठ वैठकर उन प्रश्नपत्रोको हल किया । देखा गया कि उन्ही प्रश्नपत्रोसे सव प्रश्न पूछे गये हैं । परीक्षा-भवनमे पण्डितजीने मुझसे पूछा कि कहो कैसा कर रहे हो ? मैंने उत्तेजित होकर कहा कि जीवनमे ऐसा अच्छा परचा कभी नही किया। उन्होने कोर्सके बाहरके भी प्रश्न पूछे थे। मुझे उन्हे विवश होकर ५० मे ४६ अंक देने पड़े और कोई भी विद्यार्थी फेल न हुआ। यदि मैं लाइब्रेरियन महाशयका सहायक न होता तो अवश्य फेल गया होता। सन १९०५ में पिताजीके साथ मैं वनारस काग्रेसमे गया । पिताजीके निकट सम्पर्कमे आनेसे मुझे भारतीय सस्कृतिसे प्रेम हो गया था। यह मौखिक प्रेम था। उसका ज्ञान तो कुछ था नही, किन्तु इसी कारण आगे चलकर मैने एम० ए० मे संस्कृत ली। १९०४ मे पूज्य मालवीयजी फैजावाद आये थे। भारतधर्म-महामण्डलसे सम्बन्ध होनेके नाते वह मेरे पिताजीसे मिलने घरपर आये । गीताके एक-याध अध्याय सुने । मेरे शुद्ध उच्चारणसे बहुत प्रसन्न हुए और कहा कि एण्ट्रेन्स पासकर प्रयाग आना और मेरे हिन्दू वोडिङ्ग हाउसमे रहना । पूज्य मालवीयजीके दर्शन प्रथम बार हुए थे। उनका सीम्य चेहरा और मधुर भापण अपना प्रभाव डाले विना रहता नही था। यद्यपि मैने सेण्ट्रल हिन्दू कालेजमे नाम लिखानेका विचार किया था, किन्तु साथियोके कारण उस विचारको छोड़ना पड़ा। एण्ट्रेन्स पास कर मै इलाहावाद पढने गया और हिन्दू बोडिंग हाउसमे रहने लगा। मेरे ३-४ सहपाठी थे। हमको एक बड़े कमरेमे रखा गया। छात्रावासमे रहनेका यह पहला अवसर था। वङ्ग-भङ्गके कारण काग्रेसमे एक नये दलका जन्म हुआ था, जिसके नेता लोकमान्य तिलक, श्री विपिनचन्द्र पाल आदि थे। उस समय तक मेरे कोई खास राजनीतिक विचार न थे। किन्तु कांग्रेसके प्रति आदर और श्रद्धाका भाव था। मैं सन् १९०५ मे दर्शकके रूपमे कांग्रेसमे शरीक हुआ था। प्रिस पाव वेल्स भारत आनेवाले थे और उनका स्वागत करनेके लिए एक प्रस्ताव गोखलेने कांग्रेसके सम्मुख रखा था। तिलकने उसका घोर विरोध किया। अन्तमे दवावमे उसे वापिस ले लिया, किन्तु उस समय पण्डालसे बाहर चले पाये। विरोधकी यह पहली ध्वनि सुनायी पड़ी। सन् १९०६ मे कलकत्तेमे कांग्रेसका अधिवेशन हुआ । प्रयाग आनेपर मेरे विचार तेजीसे बदलने लगे। हिन्दू बोर्डिङ्ग हाउस उग्र विचारोका केन्द्र था। पण्डित सुन्दरलालजी उस समय विद्यार्थियोके अगुआ थे। अपने राजनीतिक विचारोके कारण वह विश्वविद्यालयसे निकाले गये । उस समय बोडिङ्ग हाउसमे रात-दिन राजनीतिक चर्चा हुआ करती थी। मैं बहुत जल्द गरम दलके विचारका हो गया । हममे से कुछ लोग कलकत्तेके अधिवेशनमे शरीक हुए। रिपन कालेजमे हमलोग ठहराये गये । नरम-गरम दलका संघर्ष चल रहा था और यदि श्री दादाभाई नौरोजी सभापति न होते तो वही दो टुकड़े हो गये होते । उनके कारण यह संकट टला । इस नवीन दलके कार्यक्रमके प्रधान अङ्ग स्वदेशी-विदेशी मालका बहिष्कार