पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/४५७

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४४४ राष्ट्रीयता और समाजवाद नेताके मुझमे कोई भी गुण नही है । महत्त्वाकाक्षा भी नही है । यह बड़ी कमी है । मेरी वनावट कुछ ऐसी हुई है कि मै न नेता हो सकता हूँ और न अन्धभक्त अनुयायी । इसका यह अर्थ नहीं है कि मैं अनुशासनमे नही रहना चाहता । मै व्यक्तिवादी नही हूँ। नेतायोकी दूरसे अाराधना करता रहा हूँ। उनके पास बहुत कम जाता रहा हूँ। यह मेरा स्वाभाविक संकोच है। आत्म-प्रशंसा सुनकर कौन खुश नही होता, अच्छा पद पाकर किसको प्रसन्नता नही होती, किन्तु मैने कभी इसके लिए प्रयत्न नहीं किया । प्रान्तीय कांग्रेस कमेटीके सभापति होनेके लिए मैने अनिन्छा प्रकट की। किन्तु अपने मान्य नेताअोके अनुरोधपर खडा होना पड़ा । इसी प्रकार जव पण्डित जवाहरलाल नेहरूने मुझसे वर्किग कमेटीमे आनेको कहा मैंने इनकार कर दिया। किन्तु उनके आग्रह करनेपर मुझे निमन्त्रण स्वीकार करना पड़ा। मैं ऊपर कह चुका हूँ कि मैं नेता नही हूँ। इसलिए किसी नये अन्दोलन या पार्टीका आरम्भ नहीं कर सकता । सन् १९३४ में जव जयप्रकाशजीने समाजवादी पार्टी बनानेका प्रस्ताव रखा और मुझे सम्मेलनका सभापति बनाना चाहा तो मैंने इनकार कर दिया । इसलिए नहीं कि समाजवादको नही मानता था। किन्तु इसलिए कि मैं किसी बड़ी जिम्मेदारीको उठाना नहीं चाहता था। उनसे मेरा काफी स्नेह था और इसी कारण मुझे अन्तमे उनकी बात माननी पड़ी। सम्मेलन पटनेमे मई सन् १९३४ मे हुआ था । विहारमे भूकम्प हो गया था। उसी सिलसिलेमे विद्यार्थियोको लेकर काम करने गया था। वहाँ पहली बार डाक्टर लोहियासे परिचय हुआ। मुझे यह कहनेमे प्रसन्नता है कि जब पार्टीका विधान वना तो केवल डाक्टर लोहिया और हम इस पक्षमे थे कि उद्देश्यके अन्तर्गत पूर्ण स्वाधीनता भी होनी चाहिये । अन्तमे हम लोगोकी विजय हुई। श्री मेहरअलीसे एक बार सन् १९२८ मे मुलाकात हुई थी। वम्वईके और मित्रोको मै उस समयतक नहीं जानता था । अपरिचित व्यक्तियोके माथ काम करते मुझको घबराहट होती है, किन्तु प्रसन्नताकी बात है कि सोशलिस्ट पार्टीक सभी प्रमुख कार्यकर्ता शीघ्र ही एक कुटुम्बके सदस्यकी तरह हो गये। यो तो मैं अपने मूवेमे वरावर भापण किया करता था, किन्तु अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटीमे मैं पहली बार पटनेमें बोला । मौलाना मुहम्मद अलीने एक बार कहा था कि वंगाली और मद्रामी काग्रेसमे बहुत बोला करते है, विहारके लोग जव औरोको वोलते देखते है तो खिसककर राजेन्द्रवावूके पास जाते है और कहते है कि 'रीवाँ बोली न," और यू० पी० के लोग खुद नहीं बोलते और जब कोई वोलता है तो कहते हैं, "क्या वेवकूफ बोलता है !" हमारे प्रान्तके बड़े-बड़े नेतामोके आगे हमलोगोको कभी बोलनेकी जरूरत नहीं पड़ती थी। एक समय पण्डित जवाहरलाल भी बहुत कम बोलते थे। किन्तु सन् १९३४ मे मुझे पार्टीकी ओरसे बोलना पड़ा । यदि पार्टी वनी न होती तो शायद मैं काग्रेसमे बोलनेका साहस भी नहीं करता। पण्डित जवाहरलालजीसे मेरी विचारधारा बहुत मिलती-जुलती थी। इस कारण तथा उनके लंचे व्यक्तित्वके कारण मेरा उनके प्रति सदा आकर्पण रहा है । उनके सम्बन्धमे