मेरे सस्मरण ४४३ उनका एक सिद्धान्त यह भी था कि काग्रेसमे अपनी बात रखो और अन्तमे जो उसका निर्णय हो उसे स्वीकार करो। मै तिलकका अनुयायी था, इसलिए मैने काग्रेसमें कौसिल-बहिष्कारके विरुद्ध वोट दिया। किन्तु जब एक बार निर्णय हो गया तो उसे शिरोधार्य किया। वकालतके पेशेमे मेरा मन न था । नागपुरके अधिवेशनमे जब असहयोगका प्रस्ताव पास हो गया तो उसके अनुसार मैने तुरन्त वकालत छोड दी। इस निश्चयमे मुझे एक क्षणकी भी देर न लगी। मैने किसीसे परामर्श भी नहीं किया, क्योकि मै काग्रेसके निर्णयसे अपनेको बँधा हुआ मानता था। मैने अपने भविष्यका भी ख्याल नही किया। पिताजीसे एक बार पूछना चाहा, किन्तु यह सोचकर कि यदि उन्होने विरोध किया तो मै उनकी आज्ञाका उल्लङ्घन न कर सकूँगा। मैने उनसे भी अनुमति नही मांगी। किन्तु पिताजीको जब पता चला तो उन्होने कुछ आपत्ति न की । केवल इतना कहा कि तुमको अपनी स्वतन्त्र जीविकाकी कुछ फिक्र करनी चाहिये और जवतक जीवित रहे, मुझे किसी प्रकारकी चिन्ता नही होने दी । असहयोग आन्दोलनके शुरू होने के बाद एक बार पण्डित जवाहरलाल फैजाबाद आये और उन्होने मुझसे कहा कि वनारसमे विद्यापीठ खुलने जा रहा है । वहाँ लोग तुम्हे चाहते है । मैने अपने प्रिय मित्र श्री शिवप्रसादजीको पत्र लिखा । उन्होने मुझे तुरन्त बुला लिया । शिवप्रसादजी मेरे सहपाठी थे और विचार-साम्य होनेके कारण मेरी उनकी मिन्नता हो गयी। वह वडे उदार हृदय के व्यक्ति थे। दानियोमे मैने उन्हीको एक पाया जो नाम नहीं चाहते थे । क्रान्तिकारियोकी भी वह धनसे सहायता करते थे। विद्यापीठके काममे मेरा मन लग गया । श्रद्धेय डाक्टर भगवानदासजीनेमुझपर विश्वास कर मुझे उपाध्यक्ष बना दिया। उन्हीकी देख-रेखमें मै दो वर्पतक छात्रावासमे ही विद्यार्थियोके साथ रहता था। एक कुटुम्ब-सा था । साथ- साथ हमलोग राजनीतिक कार्य भी करते थे । कराचीमे जब अलीवन्धुरोको सजा हुई थी, तब हम सब बनारसके गॉवमे प्रचारके लिए गये थे। अपना-अपना विस्तर वगलमे दवा, नित्य पैदल घूमते थे । सन् १९२६ मे डाक्टर साहबने अध्यक्षके पदसे त्याग-पत्न दे दिया और मुझे अध्यक्ष बना दिया । बनारसमे मुझे कई नये मित्र मिले । विद्यापीठके अध्यापकोसे मेरा बडा मीठा सम्वन्ध रहा है। श्री श्रीप्रकाशजीसे मेरा विशेष स्नेह हो गया। यह अत्युक्ति न होगी कि वह स्नेहवश मेरे प्रचारक हो गये। उन्होने मुझे आचार्य कहना शुरू किया, यहाँतक कि वह मेरे नामका एक अंग बन गया है। सवसे वह मेरी प्रशसा करते रहते थे। यद्यपि मेरा परिचय जवाहरलालजीसे होमरूल आन्दोलनके समयसे था, तथापि श्रीप्रकाशजी द्वारा उनसे तथा गणेशजीसे मेरी घनिष्टता हुई। मैं उनके घरमे महीनो रहा हूँ। वह मेरी सदा फिक्र उस तरह करते है, जैसे माता अपने वालककी। मेरे बारेमे उनकी राय है कि मै अपनी फिक्र नही करता हूँ। शरीरके प्रति वड़ा लापरवाह हूँ। मेरे विचार चाहे उनसे मिले या न मिले उनका स्नेह घटता नही । सियासतकी दोस्ती पायदार नहीं होती, किन्तु विचारोमे अन्तर होते हुए भी हमलोगोके स्नेहमे फर्क नही पडा है । पुराने मित्रोसे वियोग दुखदायी है । किन्तु यदि शिष्टता वनी रहे तो सम्बन्धमे बहुत अन्तर नहीं पड़ता। ऐसी मिसाले है, किन्तु बहुत कम ।
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