पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/४७३

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४६० राष्ट्रीयता और समाजवाद आर्थिक सङ्कटकी दवा समाजवाद यद्यपि प्रारम्भमें बड़े पैमानेके व्यवसायने ही अवाधित स्पर्णको जन्म दिया था, तथापि अव उसकी आवश्यकता नहीं रह गयी है । व्यवसायकी आवश्यकतायोको विना विचारे, उत्पादनकी क्रियाको वढाते चले जानेका यही फल है । उत्पादन-शवित अव इस दर्जतक बढ गयी है कि पूंजी-प्रथाका उसके साथ सामंजस्य नही रह गया है । पूंजीप्रथामे उत्पादन- शक्तिकी अब और उन्नति नहीं हो सकती । जवतक बड़े पैमानेका व्यवसाय वर्तमान पद्धतिके अनुसार संचालित होता रहेगा तवतक मानव सभ्यताको भय बना रहेगा, मजदूरोंका कप्ट वढता रहेगा तथा साथ-साथ पूंजीपति भी वरवादीसे न बच सकेगे। दो ही उपाय है, या तो व्यवसायकी इस नयी पद्धतिका अन्त कर दिया जाय या समाजकी एक नयी व्यवस्था की जाय जिसमे बडे पैमानेका व्यवसाय फल-फूल सके और अपने आन्तरिक विरोधोंसे छुटकारा पा सके । जो नयी सामाजिक व्यवस्था होगी, उसमें कारखानेदार न होगे जो आपसमे प्रतिद्वन्द्विता करे । उस नयी व्यवस्थामे एक निश्चित योजनाके अनुसार तथा समाजके सब सदस्योकी आवश्यकताके अनुसार प्रौद्योगिक उत्पादन होगा । प्रतिद्वन्द्विताके स्थानमे सहयोग होगा। विना विचारे व्यक्तिगत लाभके लिए जो काम दैवाधीन हो रहा है, उसके स्थानमे बुद्धि-पूर्वक तैयार की हुई एक योजनाके अनुसार कार्य होगा । यह व्यवस्था समाजवादको व्यवस्था है । मानव-समाजको दारुण परिणामसे बचानेका यही एकमात्र उपाय है । पूंजी प्रथा विकासको उस, चरम सीमाको पहुँच गयी है जहां वह उत्पादनकी वृद्धिमे रकावट डालती है । पूंजीप्रथा अपना काम समाप्त कर चुकी है। समाजकी भावी उन्नतिके लिए इस प्रथाका लोप पावश्यक है । पूंजीप्रथाकी मर्यादित सीमाके भीतर उन्नतिकी अब कोई गुंजाइश बाकी नही है । पूँजी और पूंजीपति अवतक यही समझा जाता रहा है कि यह व्यापार-संकट तथा प्रौद्योगिक शक्तियोंका यह प्रपञ्च और अपव्यय अनिवार्य है, क्योकि बाजारोके हेर-फेरसे तथा अचिन्त्य कारणोके वश अथवा युद्ध, दुप्काल या आर्थिक आपदासे ऐसा होता है। किन्तु अव यह वात स्पष्ट हो गयी है कि व्यवसाय, कृपि, व्यापार, गमनागमनके साधन तथा यन्त्रोमे जो असाधारण उन्नति हुई है उसके कारण उत्पादनकी शक्तियोमे इतनी अधिक वृद्धि हो गयी है कि जितना माल तैयार किया जा सकता है उतना इसलिए नही तैयार होता कि वह ऐसी कीमतपर नही वेचा जा सकता, जिसमे लागत भी निकल आवे और मुनाफा भी बना रहे । इसलिए आज अनेक कृत्रिम उपायोसे वस्तुओंकी कीमत वढानेका उद्योग किया जाता है; कारखाने वन्द कर दिये जाते है, मजदूरोंको छुट्टी देदी जाती है, अन्न आदि वस्तुएँ नष्ट कर दी जाती है और उत्पादनको नियन्त्रित करनेके लिए प्रयत्न किये जाते है । इसमे सन्देह नही कि कुछ राजनीतिज्ञ और अर्थशास्त्री इस गम्भीर अवस्थाके लिए उन राजनीतिक तथा आर्थिक कठिनाइयोको जिम्मेदार ठहराते है, जो युद्धके वाद पैदा हो गयी है । कर्जका बोझ, टेरिफ-युद्ध, पुराने सुप्रतिष्ठित बाजारोंका बन्द हो जाना तथा