भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलनका इतिहास ३७ गम्भीरतासे विचार किया जा सके । २० अगस्त १९१७की घोपणामे भी यह उल्लेख पाया जाता है कि सुधारोको सफल बनानेमे जिस परिमाणमे भारतवासी सहयोग देगे उसी परिमाणमे दायित्व-पूर्ण शासनके सचालनकी योग्यता समझी जायगी । असहयोग आन्दोलनके बाद सहयोगके लिए सरकारका इतना पाग्रह करना स्वाभाविक था। बंगालकी प्रान्तीय कान्फरेन्सका जो अधिवेशन मई १९२५ में फरीदपुरमे हुआ था, उसमे सभापतिकी हैसियतसे देशवन्धुने स्वराज्य-पार्टीकी नीतिका स्पष्टीकरण किया था और सम्मानपूर्वक सन्धिके लिए अपनी उत्सुकता प्रकट की थी। ब्रिटिश साम्राज्यके भीतर रहनेके उन्होने अनेक लाभ वताये थे। साम्राज्यकी कल्पना उनकी दृष्टि में एक आध्यात्मिक महत्व रखती थी। उनका कहना था कि यदि साम्राज्यके भीतर रहकर भारतवर्पको आत्मानुभूति और आत्मविकासके लिए पूरा अवसर प्राप्त हो तो इससे भारतका ही नहीं, किन्तु समस्त ससारका कल्याण होगा । पं० मोतीलाल नेहरूने स्कीन कमेटीकी सदस्यता और विट्ठलभाई पटेलने वडी व्यवस्थापक सभाके सभापतिका पद स्वीकार किया। पद स्वीकार करते समय श्री पटेलने अपनी वक्तृतामे कहा था कि "स्वराज्य दलके लोगोके सम्बन्धमे प्रायः यह कहा जाता है कि ये केवल छिद्रान्वेषी है और दूसरोकी आलोचना करना ही जानते है। हमारा कर्तव्य है कि हम दिखला दे कि हम रचनात्मक कार्य करनेकी भी योग्यता रखते है।" सुधारकी जाँच करनेके लिए सरकारने १९२४मे जो कमेटी नियुक्त की थी, उसकी रिपोर्टपर बडी व्यवस्थापक सभामे १९२५मे वादविवाद हुआ । इस कमेटीके अधिकतर सदस्योने १९१९के गवर्नमेण्ट आव् इण्डिया ऐक्टकी परिधिके भीतर ही कुछ सामान्य सुधार देनेकी सिफारिश की थी। इसका विरोध करनेके लिए स्वराज्य-दलने इस अवसरपर अपनी राष्ट्रीय मांगके प्रस्तावको दुहराना आवश्यक समझा और सितम्बर १९२५मे इण्डिपेण्डेण्ट पार्टीके सदस्योकी सहायतासे राष्ट्रीय मांगके प्रस्तावको परिवर्तित रूपमे पास कराया । इस प्रस्तावमें शासन-योजनाकी एक रूप-रेखा मान दे दी गयी थी और यह सिफारिश की गयी थी कि किसी कन्वेशन या गोलमेज कान्फरेन्स अथवा किसी अन्य उपयुक्त सस्थाद्वारा इस योजनापर विचार कराया जाय । १९२४ और १९२५की मांगमे बहुत अन्तर पाया जाता है । १९२४ के प्रस्तावमे शासन-विधान वनानेके लिए गोलमेज परिपद अामत्रित करनेकी सिफारिश की गयी थी, पर १९२५के प्रस्तावमे यह वात आवश्यक नहीं रखी गयी। यदि सरकार रायल कमीशनद्वारा प्रस्तावित योजनाकी जाँच करावे तो इसमे स्वराज्य दलको कोई आपत्ति न होगी। जहाँ १९२४ के प्रस्तावके अनुसार गोलमेज कान्फरेन्सको अपनी इच्छाके अनुकूल किसी शासन-विधानकी सिफारिश करनेकी स्वतन्त्रता प्राप्त होती, वहाँ १९२५की माँगमे एक सकुचित शासन-योजनाका प्रस्ताव किया गया । इस प्रकार हम देखते है कि विविध कारणोसे स्वराज्य-पार्टीको अपनी पुरानी नीतिका धीरे-धीरे बहुत कुछ अंशमें परित्याग करना पडा । उनको अपनी मांग भी घटानी पड़ी और यह दावा भी छोड़ना पड़ा कि कौसिलके भीतर रहकर सरकारसे असहयोग करनेके
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