पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/६८

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जन-जागृतिका पुनर्जन्म जो साधन स्थिर किये थे वे वैधानिक नही थे । जर्जर मंचूराज्यको उलटनेके लिए उसने सैनिकोंकी सहायता मांगी । उसने यह भूल अवश्य की कि इस वातको अच्छी तरह महसूस नहीं किया कि उसका भयंकर शत्रु विदेशी साम्राज्यवाद था और जवतक चीनकी जनता इस वातको महसूस नही कर पायी तवतक पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त करनेके लिए प्रभावकर कार्यक्रमके साथ वह शुद्ध प्रजा-पार्टीको स्थापना नही कर सकी। यह भी ध्यान देनेकी वात है कि सनयातसेन भी मंचू शासन और उसके अत्याचारोके विरुद्ध चीनके लोहा लेनेमे पश्चिमके लोकतन्त्रवादी देशोकी सहायता चाहते थे। वे ऐसा समझते थे कि उनका शत्रु घरमे ही है । उनके सरल हृदयमे ऐसी आशा थी कि विदेशी साम्राज्यवादी देश मंचू शासनके उलटनेमे सहायता करेगे। इस प्रकार भारतीय देशभक्त व्यर्थ ही अंग्रेजोपर विश्वास रखते थे यद्यपि भारत-स्थित गोरी नौकरशाहीसे न्याय पानेकी आशा उन्होने सर्वथा छोड दी थी। उन्नतिशील यूरोपियन संस्कृतिके संघर्पसे सभी जगह एक नये वर्गका जन्म हुआ। यह वर्ग पश्चिमकी उदार नीतिकी ओर आकृष्ट हुआ और अपनी मुक्तिके लिए यूरोपीय जनताकी ओर आशाभरी दृष्टिसे ताकने लगा । यूरोपीय ढगकी संस्थाएँ इसे रुचने लगी और विदेशियोकी सहायतासे और उनके सरक्षणमे वह उन सस्थानोको अपने देशमे भी स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील हो उठा। भारतमे शिक्षितवर्ग 'भारतीयकी अपेक्षा अग्रेज' बन गया जिस तरह इटालियनों या गालकी अपेक्षा रोमन बन गये थे।' मुगल साम्राज्यको समाप्तिपर देशके अनेक भागोमे जो क्रान्ति और अराजकता फैल गयी थी, उसे ब्रिटिश शासनने मिटा दिया था। अंग्रेजी राजमे लोगोको जान-मालकी सुरक्षा दिखायी पड़ने लगी । इस स्थितिका मूल कारण यही था। क्रान्तिकारी परिणामोसे युक्त कोई महान घटना ही शिक्षित वर्गको इस मनोवृत्तिमे परिवर्तन पैदा कर सकती थी। १९०५ ई० मे एक ऐसी ही महान घटना घटी । जापानने रूसको पराजित कर दिया। इस घटनाने एशियावासियोमे महान जागृति उत्पन्न कर दी। इसे देखकर सबसे पहले उनके हृदयमे यह भावना उत्पन्न हुई कि उनके राष्ट्रीय चरित्रमें ऐसा कोई दोष नही है जो उनकी राजनीतिक प्रगतिमे रोड़ा अटका सके । विदेशी सत्ताके सम्मुख नतमस्तक होनेकी उनकी भाग्यवादी मनोवृत्ति मिटने लगी और राष्ट्रीय आत्मसम्मान एव मानवताके अधिकारोकी नयी भावना उनके हृदयमे जागृत होने लगी। उनकी जो भावना अभीतक मृतप्राय पड़ी थी, उसमे पुन जीवनके चिह्न दृष्टिगत होने लगे। जनतामसे ऐसे ऐसे वीर नेता उत्पन्न होने लगे जो अपनी राजनीतिक आकाक्षाप्रोपर किसी भी प्रकारका प्रतिबन्ध लगानेके लिए प्रस्तुत न थे । वे इस वातको महसूस करने लगे कि भिक्षाके मार्गद्वारा भारत कभी भी अपने अधिकारोको प्राप्त करनेमे समर्थ नहीं हो सकता। वे इस निष्कर्पपर पहुँचे कि स्वावलम्बन द्वारा तथा शासकोसे पृथक् अपना राष्ट्रीय संघटन करके ही भारत अपना लक्ष्य प्राप्त कर सकता है । वे निर्भीकतासे एवं स्पप्ट शब्दोमें अपना मत प्रकट करने लगे। राजनीतिज्ञोकी भापामे घुमाफिराकर अपनी बात कहना