पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/७१

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५८ राष्ट्रीयता और समाजवाद था। यद्यपि यह सही है कि इस नयी विचारधाराके प्रमुख प्रवर्तकोपर हिन्दू संस्कृतिका विशेप प्रभाव था, तथापि अपने लेखो और भापणोमे वे सदैव ही पुरातन संस्कृतिके मूल तत्वोपर जोर देते थे। 'वन्देमातरम्' (१९०८) के एक अग्रलेखके इस अशसे यह वात स्पप्ट हो जायगी-"हमारी दार्शनिकता और भावुकताने हमारी पुरातन संस्कृति तथा विचारधाराको बहुत मर्यादित कर रखा है और ये सव शमे नही तो अनेकांशमें हमारे पतनके लिए उत्तरदायी हैं। इन्हीके कारण हमने अपना प्राचीन एव गौरवशाली स्थान खो दिया है । यदि हम अव भी इसी मार्गपर चलते रहे तो हम अपनी पराधीनता और पतितावस्थाको और अधिक स्थायी बना लेगे ।... अपनी इन्द्रियोको मारकर और वाहरी जगत्के सघर्पोसे अपनेको वचाकर हम आन्तरिक शान्ति प्राप्त करनेका दीर्घकालसे प्रयत्न करते आ रहे है . एशियाके और मुख्यत. भारतीय सस्कृतिक पुनर्जागरणमें एशियाके और विशेषतः भारतके प्राचीन आध्यात्मिक आदर्शोको हमे समझ बूझकर घातक रूढियो और वास्तविकता-विरोधी बातोसे सर्वथा पृथक् कर देना होगा जिनसे वे आदर्श बुरी तरह गुथ गये है ।" इन लोगोके हाथमे पड़कर वेदान्त एक शक्तिशाली दर्शन बन गया । लोकमान्यने गीतारहस्य लिखकर कर्मयोगकी महत्ता बतायी । बहुतसे नेताग्रोका प्टिकोण आधुनिक था। इस बातका ज्ञान उनकी रचनाप्रोसे प्राप्त किया जा सकता है । कुछ प्रमुख उत्सवोका राजनीतिक उद्देश्योके लिए उपयोग किया गया, यह देखकर यह कहना ठीक नही कि सामाजिक और धार्मिक मामलोमें वे प्रतिक्रियावादी थे । जनसमूहके भीतर राजनीतिक कार्य करनेके लिए राजनीतिक शिक्षणकी यह पद्धति अत्यन्त उत्तम समझी गयी । जनताकी राष्ट्रीय भावनायोको जागृत करनेके लिए राष्ट्रीय वीरोंकी जयन्तियाँ मनाना प्रारम्भ किया गया । निश्चय ही कोई व्यक्ति ऐसा कहनेका साहस न करेगा कि लोकमान्यने शिवाजी जयन्तीका जो श्रीगणेण किया उसमे उनके हृदयमें मरहठा साम्राज्य अथवा हिन्दूपद पादशाही स्थापित करनेकी कल्पना थी। सहवासकी आयु-सम्बन्धी विलका उन्होने विरोध किया था। इस वातको उनके विरुद्ध प्रमाणके रूपमे उपस्थित करके कहा जाता है कि वे सामाजिक मामलोमे प्रतिक्रियावादी थे। वालिकाओंके विवाहकी आयुमे वृद्धि करनेके प्रश्नपर उन्हें उतनी आपत्ति न थीं, जितनी इस वातपर आपत्ति थी कि एक विदेशी जाति और संस्कृति, एक विदेशी सरकार भारतकी सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं और प्रथायोमे हस्तक्षेप करे । उनका मुख्य कार्यक्षेत्र राजनीति था । वे ऐसे सामाजिक सुधारके आन्दोलन मे पड़ना नहीं चाहते थे जिससे सनातनधर्मी वर्गके भीतर राजनीतिक कार्य करने में कोई वाधा उपस्थित हो । वे कानूनद्वारा सामाजिक सुधार करानेके पक्षमे न थे। वे चाहते थे कि सामाजिक सुधार शिक्षा और प्रचारद्वारा हो । दलके अन्य नेताअोपर इस प्रकारका अारोप नहीं लगाया जा सकता। वे कट्टर समाजसुधारक थे । नये दलने विचारोके क्षत्रमें सफल क्रान्ति की। हमारे राष्ट्रीय इतिहासमे उसे सम्मानजनक स्थान मिलना चाहिये । नेशलिस्ट दलको ही यह श्रेय प्राप्त है कि उसने राष्ट्रीय आन्दोलनको दृढ़ आधारपर स्थापित किया और सर्वप्रथम अपने लक्ष्य और उद्देश्य-