पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/७६

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दूसरा अध्याय अभिभाषण बहनो और भाइयो, आपने इस सम्मेलनका सभापति चुनकर मुझको जो आदर प्रदान किया है उसके लिए मैं आपका अत्यन्त कृतज्ञ हूँ। मैं अपनेको इस पदके लिए सर्वथा अयोग्य पाता हूँ। आजकलके जमानेमे राजनीतिक सस्थानोका सफल सचालन करना हँसी-खेल नही है । वह संस्थाएँ भी जिनके सम्मुख उँचे आदर्श है और जो तात्कालिक लाभकी उपेक्षा कर समाजके मौलिक हितोकी सिद्धिमे ही सतत प्रयत्नशील रहती है, ईर्ष्या, द्वेप और आपसकी दलबन्दीसे सर्वथा अछूती नही रह पाती। भलीसे भली सस्थाएँ भी इस रोगसे मुक्त नही है । गिरोहवन्दी, पदलोलुपता, अधिकारकी चाह यह ऐसी दुर्वलताएँ है जिनसे वचना बड़ोके लिए भी कभी-कभी दुष्कर हो जाता है। इन सब कठिनाइयोका धैर्य और साहसके साथ मुकाबला करना और उनसे विचलित न होना, भिन्न-भिन्न व्यक्तियों और समुदायोको सन्तुष्ट रखना, विरोधियोके अनुचित प्रहारोको सहन करनेकी अपरिमित शक्ति रखना, मनोगत भावोको गुप्त रखनेमे कुशल होना और प्रत्येक परिस्थितिमें आशावान् वने रहना यह एक ऐसी कला है जिसका जानकार हरएक नही हो सकता और जो इस कलाको नही जानता वह साधारण रीतिसे राजनीतिक संस्थानोका सफल सूत्रधार नही वन पाता । मुझे खेदके साथ कहना पडता है कि इस कलाके सीखनेका मुझे जीवनमे अवसर नही मिला । एक अध्यापकका जीवन सरल और नीरस होता है । शिक्षाकी जीविका इसीलिए निर्दोष समझी जाती है और इस पेशेमे अधिकतर वे ही लोग आते है जो स्वभावसे शान्त और निस्पृह होते है । किन्तु राजनीतिक जीवनमे शान्ति कहाँ ? वह तो राग-द्वपसे आपूर्ण है। वह जीवन साथ ही साथ इतना सरस और आकर्षक होता है कि लोग अन्य प्रकारसे दुखी होते हुए भी उसमे एक विशेप प्रकारके माधुर्यका रसास्वाद करते है । अपने प्रान्तके काग्रेस कार्यमे भी मेरा ऐसा कोई स्थान नही रहा है जिसके कारण मैं समझू कि आपकी कृपादृष्टि मेरे ऊपर पड़ी। आपको शायद यह जानकर आश्चर्य होगा कि मै बरसोसे किसी नगर या जिला काग्रेस कमेटीका मेम्वर भी नही रहा हूँ। प्रान्तके संगठनसे मेरा कोई घनिष्ठ सम्बन्ध भी नही रहा है। फिर क्या कारण है कि मै आपकी कृपाका पात्र बना और आपने उचित समझा कि आप मुझको यह गौरव प्रदान करे ? मै तो यही समझता हूँ कि आपने इस तरह उस शिक्षासस्थाके कार्यपर अपनी १. युक्त प्रान्तीय राजनीतिक सम्मेलनके उन्नीसवे अधिवेशन (बरेली) मे सभापति पदसे दिया गया भापण । .