पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/१००

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( अ ) कंध बंध संघिय निजर । परी पहर मध्यान ।।
तब बहुरचौ पारस फिरिय । फिरयों भीछ चहुवान ।। ५९२, स० २५;
(ब) छठिठ ऋद्ध बर घटिय । चढ्यौ मध्यान भान सिर ।।
सूर कंध बर कट्टि । मिले काइर कुरंग बर ।। ७२, स० २७;
( स ) जय जया सह जुग्गनि करहि । कलि कनवज्र दिल्लिय बय ।।
सामंत पंच वित्तह पिंग । भिरत पंच भये विप्महर ।। १७३३,स०६१

मृगया--

इस काव्य के चरित्र नायक का परम व्यसन मृगया था। तभी तो देखते हैं कि जहाँ युद्ध से विश्राम मिला कि मृगया का आयोजन किया गया परन्तु इसमें भी बहुधा युद्ध की जौवत आ पहुँचती थी। इस आखेट काल में हिंसक जन्तुयों को मारने के अतिरिक्त कभी किसी वन की भूमि से गड़ा द्रव्य खोदा जाता था, कभी वीरगण ( प्रेत, प्रमथ यादि ) वशीभूत किये जाते थे, कभी शत्रु की चढ़ाई का समाचार पाकर उसे स्थगित कर दिया जाता था और कभी वहीं शत्रु से मुठभेड़ हो जाती थी । इस प्रकार की विविधता के कारण रासो के मृगया-प्रसंग अधिक रोचक और सरस हो गए हैं तथा साथ ही उनका विस्तार भी अधिक हो गया है। एक आखेट वर्णन के कुछ अंश देखिये :

आषेट रमत प्रथिराज रंग । गिरवर उतंग उद्यान दंग ।।
उत्तंग तरुन छाया अकास । अनेक पंषि क्रीडति हुलास ।।
सुब्बा सुरास छुट्ट सुगंध । तहां भ्रमत भोर बहु बास अंध ।।
फल फूल भार नसि लगी साथ । नासा सुगंध रस जिह्न चात्र ।। १३
पत्र प्रचंड फूंकर फिरंत । देषंत नरह ते करत अंत ।।
अनेक जीव सह करत केलि । बट विटप छांह अवतंत्र वेलि ।।
एक घाट विकट जंगल दुबार । तहां बीर मूल पिथ्थल कुंझार ।।
वामंग अंग चामंड राय । चूकै न मूठि सौ काल घाइ ॥ १४, स० १७

इससे भी अधिक साङ्गोपाङ्ग वर्णन स० २५,छं० ५२-६७ में द्रष्टव्य है । वर्णन-विस्तार के साथ उसकी संश्लिष्ट योजना भी उल्लेखनीय है।

पर्वत--

(अ) 'प्रथम समय' में हिमालय का अपने पर्वत पुत्रों से वार्तालाप ( छं० १७८-६२), अर्बुद नाग द्वारा नंदगिरि को उठाकर उसे गहर में रखकर पूर देने, शिव के अचलेश्वर नाम से वहाँ स्थित होने तथा अर्बुद नाग के