पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/१०१

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नाम पर उस पर्वत का आबू नाम होने और उस पर वशिष्ठ का ऋषियों को आमन्त्रित करके यश करने (छं० १९३-२४०) का उल्लेख है ।

(ब) दिल्ली से चंद के ग़ज़नी जाने पर मार्ग की विषमता, पर्वत, झरने, व्याघ्र प्रादि हिंसक जन्तुओं का वर्णन हुआ है :

सम चल्यो भट्ट गज्जन तु राह । वन विषम सुषम उग्गाह गाह ।।
रह उंच नीच सम विषम थान । गह बरन सैल रन जल थलान ।। ९६
द्रिग जोति लग्गि मन सबद भीन । भुल्ल्यौ सरीर निज मग्ग षीन ।।
रतौ सु जोग मग्गह सरुव । जगमगत जोति आयास भूव ।। ९७
भिधौ सु प्रीति प्रथिराज अंग । निरकार जीय रतौ सुरंग ।।
भुल्ल्यौ सु मग्ग गज भट्ट । बन चल्यौ थान उद्यान थट्ट ।। ९८
उभरत इम्भ सम अम्भ नद्द । के तरत भिरत भज्जत समद्द ।।
उद्यान तज्जि संग्रहै एक । गंजहिति बध्ध मग्गह अनेक ।। ९९
जुग देत दंति सिंधहि सुरम्भ । म्रिग वध्ध मंत्रि अजगर अदम्भ ।।
सा पंच चिल्ह संग्रहै सास । सा वद्द बनंचर विषम भास ।। १००
गुंजरत दरिय सम्मीर सद्द । निशुरत भरत नद रोर नह ।।
बन बिकट रंध को चक्क राह । सद्दहि सु ताम संमीर गाह ।। १०१
उड्डत उरंगवर तर सुलग्भग । सुझझहि न विदिसि दिसि मझ्झ मग्ग ।।
बन चल्यो मझ्झ भट्ट भयंक । रतौ सु जोति सज्जे निसंक ।। १०२
निझ्झरिह करिय रहर करूर । उम्भरहि सलित सहिता सपूर ।।
कलरव करत तुज नेक मास । तर विकट सघन पंषिनि हुलास ।। १०३ निसि दिवस भट्ट बन चल्यो जाम । संभरथौ राज भौ श्रम्म ताम ।।
बेयो सुगबुद्धा पियास । तर वह देषि लागे आयास ।। १०४, स०६७

ऋतु --

ऋतुओं के वर्णन का उल्लेख पिछले 'काव्य सौष्ठव' शीर्षक के अन्तर्गत पृष्ठ १३८ में किया जा चुका है तथापि 'शशिवृता वर्णनं नाम प्रस्ताव' के वर्षो और शरद वर्णन के दो स्थल अप्रासंगिक न होंगे। 'चारों और मोरों के स्वर हो रहे थे, आषाढ़ मास की घटायें आकाश में चढ़ीं थीं, मेढकों और झींगुरों के स्वर मुखरित थे, चातक रट रहे थे, अलंकृत श्राभरण धारण करके वसुन्धरा हरी हो गई थी, बादलों के गर्जन सहित वर्षा होने पर राजा यादव कुमारी का स्मरण करते थे, मन्मथ के बाण लगने पर उनकी आत्मा व्याकुल होने लगती और शरीर धैर्य नहीं धारण करता था' :