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वन--

धन का वर्णन मृगया के साथ मिला जुला प्राप्त होता है जो अनुचित नहीं क्योंकि आखेट का वही स्थल है। विशाल जंगल देश के स्वामित्व के कारण भी 'जंगलेश' उपाधि वाले पृथ्वीराज का वन में चाखेव मन रहना स्वाभाविक ही था । वन-वन का एक प्रसंग देखिये :

वन में शिकार के लिये पृथ्वीराज के पहुँचने पर हाँका हुआ और पशुओं में भगदड़ मच गई--

कवि चंद सोर चिहुँ ओर वन । दिध्व सद् दिग अंत भौ ।।
सकिय सयल्ल जिम रंक । इस अरव वाक भौ ।। १२;

कुमार पृथ्वीराज जंगल की भूमि में आखेट कर रहे थे । उनके साथ शूर सामंत, गहन पर्वतों और उनकी गुफाथों में भ्रमण कर रहे थे । एक सहस्त्र श्वान, एक सौ चीते, मन सदृश वेग वाले दो सौ हिरन उनके साथ थे । वहाँ उस सघन वन में कवि चंद मार्ग भूलकर भटक गया :

सम विषम विहर वन सघन घन । तहाँ सथ्य जित तित हुन ।।
भूल्ल्यौ सुसंग कवियन वनह । और नहीं जन सँग दुआ ।। १३

यह वन इस प्रकार का था :

विपन विहर ऊपल कल । सकल जीव जड जाल ।
परसंपर बेली बिटप । अवलंवि तरल तमाल ।। १४
सघन छाह रवि करन चत्र । धग तर पसु भजि जात ।।
सरित सोह सम पवन धुनि । सुनत श्रवन कहनात ।। १५
गिरि तट इक सरिता सजल । फिरत भिरन चहुँ पास ।।
सुतर छाँह फल अमिय सम । बेली विसद विलास ।। १६, २०६६

यहीं पर कवि को एक ऋषि के दर्शन हुए थे ( छं०१८, स०६ ) ।

'पउम चरिउ' में स्वयम्भु देव का वन-वर्णन भी देखिये :

तहि तेहएँ सुन्दरे सुम्पवहे । आचारण-महग्गय-जुत्त रहे ।
धुर लक्खणु रहवरे दासरहिं । सुर-लीलऍ पुणु विहरंत महि ।
तं करण-वरण-एईमुए विगया । वा केहिमि गिहालिय मत्तगया ।
कवि पंचाणण गिर-गुहेहिं । मुत्तवलि विक्रिंति राहे हैं।
कत्थवि उड्डाविय समसया । ण अडविहे उड्ढे विराण गया ।
कत्थवि कलाव च्वंति वर्णे । गावइ गट्ठावा जुयइ-जणो ।
कवि हरिणइँ भय-भीयाई । संसारहों जिह पावर याई ।
कत्थवि एणा-विह रक्ख राई । णं महि कुल बहुश्रहि रोमराइ ।। ३६-१