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सागर--

'दूसरे समय' को 'मच्छावतार कथा' में मत्स्य भगवान् का सागर में निवास और सातों सागरों के जल का उछल-उछल कर श्राकाश में लगने का प्रलयकारी दृश्य भय के संचारी रूप में वर्णित हुआ है :

सायर मदि सु ठाम । करन त्रिभुवन तन अंजुल ।।
देव सिंगि रषि धरनि । सिरन चक्की चप् झंपल ।।
जैन भुजा ग्रज्जत । रसन दसनं झुकि झाइय ।।
एक करन ओढंत । एक पहरंत सवांइय ।।
चल चले सपत साइर अधर । इंद्र नाग मन कवन कहि
गिर घर चलंत पग मलन मल । लेन वेद अवतार गहि ।। ९२

इसके अतिरिक्त रासो में समुद्र का विस्तृत वर्णन पृथक रूप से नहीं किया गया है। अधिकांशतः वह उपमान रूप में आया है और जहाँ कहीं उसका प्रसंग है भी वहाँ पर सम्भवतः वार्ता विशेष का उससे अधिक सम्बन्ध न होने के कारण उसे चलता कर दिया गया है ।

चंद अन्हलवाड़ापन पहुँचा जो सागर के तट पर था। उसका किंचित दृश्य देखिये :

तिन नगर पहुच्यौ चंद कवि । मनो कैलास समाष लहि ।।
उपकंठ महल सागर प्रबल । सघन साह चाहन चलहि ।। ५०,
बजान बज्जयं घन । सुरा सुर अनगन ।।
सदान सद्द सागर । समुदवं पटा झरं ।। ५३, स० ४५

'मानस' में तुलसी के सामने सागर वर्णन के पाँच अवसर आये । प्रथम में 'सिंधु तीर एक भूधर सुन्दर,कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर' कहकर दूसरे में लंका-दाह करनेवाले हनुमान् को 'कूदि परा पुनि सिंधु मझारी' तथा 'नाषि सिंधु एहि पारहिं श्राचा' कहकर समाप्त किया गया । तीसरे स्थल पर जिसके प्रसंग में आदिकवि ने सागर का प्राकृतिक रूप साकार किया, तुलसी ने 'एहि विधि जान कृपानिधि उतरे सागर तीर' मात्र से अन्त कर दिया । चौथे में 'विनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन नीति' के पश्चात् खुपति ने चाप चढ़ाया और 'मकर उरग वन अकुलाने, जरत जन्तु जलनिधि जब जाने' पर सागर के विप्र रूप में उपस्थित होकर क्षमा प्रार्थी होने तथा अपने ऊपर पुल बनाने की युक्ति बताने का उल्लेख किया । पाँचवाँ स्थल लंका विजेता पुष्पकारूढ़ राम द्वारा सीता को सेतुबन्ध दिखाते हुए 'इहाँ सेतु बाँध्य