पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/११

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भूमिका

बंगाल और लंदन की रॉयल एशियाटिक सोसाइटियों के त्रैमासिक- शोध-पत्रों के उन्नीसवीं शताब्दी के विविध अंकों में पृथ्वीराज रासो' पर प्राच्यविद्या-विशारद श्री बीम्स, ग्राउज़ और डॉ० ह्योनले के लेखों ने इस विषय पर लगन लगाये इन विदेशियों के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करके हृदय में अनुराग और प्रेरणा को जन्म दिया ! कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभाग के तत्कालीन अध्यक्ष श्री ललितप्रसाद जी सुकुल एम ए ने न केवल प्रोत्साहित किया बरन् सारी कठिनाइयों को सदैव सुलझाते रहने का अश्वासन दिया और उक्त बिद्यालय के आधुनिक वागेश्वरी प्रोफेसर डॉ० नीहार रंजन राय ने बंबई और बंगाल की एशियाटिक सोसाइटियों के संग्रहालयों से रासो की प्रतिथ शीघ्र ही मेरे कार्य हेतु सेन्ट्रले-लयि री में संग्रहीत कर दी । तब तो प्रेरणा एक निष्ठा होकर कर्तव्य बन गई ।

जिज्ञासा उठना स्वाभाविक था कि क्या हिन्दी के लब्ध-प्रतिष्ठ विद्वानों में रासो के प्रति अनुराग नही या वे संकोच अथवा किसी अंबज्ञावश उसको साधारण पाठक के लिये बोधगम्य नहीं बनाना चाहते है इतिहास की कसौटी पर बुरा न उतरने के कारण साहित्यिको की इस महाकाव्य के प्रति दुविधात्मक उपेक्षा तो कुछ समझ में आई परन्तु साहित्य की इस अनुपम पैतृक सम्पत्ति पर स्वाभाविक अनुराग होते हुए भी उनके मन में संकोच निहित देख पड़ा। आगे बढ़कर अलोचनाओं का लक्ष्य कौन बने ?

मैं नींव का एक तुच्छ पत्थर हैं जो पृथ्वी के अंतराल में उड़ा रहता हैं, तथा जिसकी और सहसा किसी का ध्यान नहीं जाया करता परन्तु उसकी भीत पर विश्व के चकाचौंध में डालने वाले भव्य प्रसाद का निर्माण होता है। उसी आगामी 'ताज' की प्रतीक्षा में रासो के रेवा-तट' का अपना प्रथम प्रयास मै वाणी के हिन्दी-उपासकों को सादर अर्पित कर रहा हूँ ।