पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/१२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( २ )


सन् १९४१ ई० में प्रस्तुत सपथ’ कई कार्य समाप्त हो चुका था। तब से सन् १९५१ ई० तक इसकी पाण्डुलिपि सौभाग्य की प्रत्याशा में अपने दुर्भाग्य के दिन कई विश्व-विख्यात संस्थाओं की अलमारियों में बन्द रह कर काटती रही और मैं उनके बड़े नाम के प्रलोभन के नँवर-जाल में पड़ा रहा। हम हिन्दी लेखकों के जीवन में ऐसे दोभ और निराशा के क्षण एक आध बार नहीं श्रोते वरन् एक बवंडर सदृश चारों ओर से ग्रस्त किये रहते हैं। अपना रवून-पसीना एक करके, मर मिटकर प्रस्तुत की हुई हमारी कुतियाँ, बीस-पच्चीस रुपये पारिश्रमिक स्वरूप और वह भी एहसान की बोझ लादते हुए, कुकुरमुत्ते की तरह छाये, हिन्दी लेखकों के रक्त-मांस के आधार पर अपने ऐहिक सुखों‌ की निरन्तर अभिवृद्धि करने वाले व्यक्तिगत-प्रकाशक नामधारी कल शोषक जन्तुओं के चंगुल से बच जावे . महान सौभाग्य है । हिन्दी की बड़ी-बड़ी संस्थाओं में दलबंदी के कारण ये दिन पारस्परिक मुठभेड़ों से ही मुक्ति नहीं तब नये लेखक का पुरसाहाल कौन हो । इसी कशमकश में एक दशाब्द व्यतीत हो गया । अंततोगत्वा पंचतंत्र की ड्पोरशंख वाली कथा के वदामि ददामि नो' उपदेश साकार हो उठा । अंतरष्ट्रीय ख्याति के प्रलोभन के तिमिर-जल का तिरोभाव हुआ और आकाश-पुष्प की वास्तविकता का रहस्य उद्घाटित हो गया। लखनऊ-विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभाग के अध्यक्ष और फेसर डॉ. दीन दयालु जी गुप्त इस कार्य को सन् १६४२ ई० में ही देख चुके थे, उन्हीं के प्रोत्साहन के फलस्वरूप इस प्रकाशन हो सका है !

रेवा-तट पर आने से पूर्व रासो सम्बन्धी कतिपय विवेचनायें विचारणीय हैं :

काव्य-सौष्ठव

हिंदी के अादि अथवा उत्तर कालीन अपभ्रंश' के अंतिम महाकवि चंदवरदाई ( चंद बलद्दि ) का ‘पृथ्वीराज रासो', १२ वीं शती के दिल्ली और अजमेर के पराक्रमी हिन्दू-सम्राट शाकम्री-नरेश पृथ्वीराज चौहान तृतीय तथा उनके महान प्रतिद्वंदी कान्यकुब्जेश्वर जयचन्द्र गहड़वाल, गुर्जरेश्वर भीमदेव चालुक्य और गज़नी लाहौर के अधिपति सुलतान' सुईजुद्दीन मुहम्मद बिन साम ( शाह शहाबुद्दीन री ) के राज्य, रीतिनीति, शासन-व्यवस्था, सैनिक, सेना, सेनापति, युद्धशैली, दूत, गुप्तचर, व्यापार, मार्ग आदि का एक प्रमाण, समता विषमता की श्रृंखलालों से जुड़ा हुथा, ऐतिहासिक-अनैतिहासिक वृत्तों से आच्छादित, पौराणिक कथाओं से लेकर कल्पित कथा का अक्षय लुणीर, प्राचीन काध्य परम्पराओं तथा नवीन का प्रति-