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'पउम चरिउ' में स्वयम्भु देव का नगर वर्शन देखिये- 'वहाँ पर धन और सुवर्ण से समृद्ध राजगृह नाम का नगर है जो नत्र यौवना पृथ्वी की श्री के शेखर सह दिखाई देता है । उक्त नगर में चार द्वार हैं जो चार प्रकार के हैं जिन पर मुक्ताफलों सह श्वेत हंस हैं। करात्र में चायु द्वारा ध्वजा इस प्रकार हिलती है जैसे व्याकाश-सार्य में धारा पड़ रही हो । शुद्ध के अन भाग में बंधे हुए देवल शिखर ऐसे बजते हैं जैसे पारावत गंभीर शब्द कर रहे हो । मद-विह्वल गजराजों पर जैसे घूँ बते हैं, चंचल तुरंगों पर जैसे उड़ते हैं । (वातायें) चन्द्रकान्त मणि सदृश जल में स्नान करती हैं और दैदीप्यमान मेखलायें धारण किये हुए प्रणाम करती हैं। अपने गिरे हुए नूपुरों को उठाते समय उनके युगल कुंडल हिलने लगते हैं । सर्वजनोत्सव में इस प्रकार की खिलखिलाहट हो रही है मानों मृदंग और मेरी के स्वरों का गर्जन हो रहा हो । नूर्च्छना और बालाप सहित गान हो रहे हैं मानो धन, धर्म और सुवर्ण को पूर्णता प्राप्त हो रही हो' :

ताहि पट्टखु णामे रायगिहु, धरा-कराय समिद्धउ ।
णं पुऍ एव-जोन्वणाइ, सिरि-सेहरु श्राइड ॥ ४
चउ गोरु-त्ति पावार वन्तु । हँस इव सुत्ताहल धवल दन्तु ।
सच्चई' व मरुद्धय-य-करा । घर इव विडंतउ गयण - सग्गु ।
सुलग्ग-भिराशु देउल-सिहरु । कण इब पराबय-तद्द-गहिर ।
धुम्म' व एहिं नयभिभतेहि । उड्डह' व तुरंगहि चंचलेहि ।
ग्रहाइ' व ससिकंत-जलोयरेहिं । पणवह' व तार-मेहल-हरेहि ।
पक्खतइ' व नेउर- सिय-लएहि । विष्फुरद्द' व कुंडल-युगल एहि ।
किलकिलइ'ब' सब-जयोच्छवेश । गज्जर इव मुख-मेरी रवेण ।
गावइ' व अलावा-मुच्छरोहि । पुरवई' व वस्तु पण-केचरोहि ।। १/५४-५

जयानक के 'पृथ्वीराज विजय' सर्ग ५ तथा 'प्रभावक चरित' (हेमचन्द्र सूरि प्रबंध) में अजमेर नगर का वर्णन प्रष्टव्य है ।

अध्वर ( यज्ञ ) --

रासो- काल तक यज्ञों की परम्परा समाप्त हो गई थी यही कारण है कि कान्यकुब्जेश्वर जयचन्द्र को राजसूय यज्ञ करने का समर्थन नहीं प्राप्त हुआ । पूर्व काल में अपना चक्रवर्तित्व स्थापित करके उक्त यज्ञ का विधान किया जाता था जिसका छोटे से लेकर बड़ा कार्य राजागण ही करते थे । गुजरात के चालुक्य और दिल्ली अजमेर के चौहान जयचन्द्र के प्रबल प्रति- स्पर्द्धा थे अस्तु ऐसी स्थिति में 'दलपंग' का राजसूय यज्ञ ठानना अनुचित