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रण--

युद्धों से ओत-प्रोत इस काव्य में रण- प्रांगण के कुशल और प्रभावोत्पादक वर्णन देखने को मिलते हैं और कवि हृदय समर्थित ये स्थल भय की प्रतीति नहीं करते वरन् श्राह्नान का मंत्र देते हैं जहाँ 'बधावधी निज त्रावण' ( सूर्यमल्ल ) की सिद्धि प्रत्यक्ष करते हुए संग्राम-साधकों की प्रोजस्विनी ललकार सुनाई देती है । एक स्थल देखिये :

मेछ हिंदू जुद्ध घरहरि । घाइ घाइ अघाय घर रुड मुंडन एंड पर हरि ।।
रूड मुंडन षंड षर हर । मत्त बहुत सुरत भाग काइर जूह भीरन ।। ७९
भग्ग काइर जूह भीरन । छंडि जल सूरिज्ज धीरन ।।
रूडचढ्ढि रचि थरहरि । रक्त जुग्गनि पत्र पिय भरि ।।८०

भर तोअर अभिरत । धरत कर कुंत जंत अरि ।।
गजन बाज घर ढारि । धरनि वर रत जुध्य परि ।।
भग्गि भीर काइर कनक । हिय पत मुच्छि द्रढ ।।
भग्यि सेन सुरतान । दिष्षि भर सुभर पानि कढ़ ।।
उम्मारि सिंग कुंभन छरिय । झरिय श्रोन मद गज ढरिय ।।
हर हरषि हरषि जुग्गनि सकल । जै जै जै सुर उच्चारय ।। ११८,स०३७

प्रयाग ( यात्रा )--

रासो में विवाह, रण और मृगया ये ही तीन यात्राओं के प्रकार हैं । आबूराज की कुमारी इंच्छिनी से परिणय हेतु पृथ्वीराज की विवाह यात्रा देखिये :

चढि चल्यौ राज प्रथिराज राज । रति भवन गवन मनमथ्य साज ।।
सिर पहुप पटल बहुसा प्रवास । अवलंब रहिय व्यक्ति सुर सुरास ।।
मुष सोभ जलज केंद्र किसोर । दीजै सु आज अप कौन जोर ।।
चिति काम बीर रजि अंग और । संकरथौ जान मनमथ्य जोर ।।
जिम जिमति ज्ञाज र चढत दीह । लज्जा सुजांनि संकलिय सीह ।।
जिम-जिम सुनंत त्रप श्रवन वन्त । तिम तिम हुत रस काम रत ।।
मधु मधुर बेन मधुरी कुमारि । रति रचिय जांनि सेंसब सवारि ।। १८, स० १४

सुलतान शोरी की सुसज्जित वाहिनी का रण प्रयाण दृष्टव्य होगा जिसके वर्णन के अन्त में कवि कहता है कि पृथ्वीराज चौहान के अतिरिक्त उसका मद कौन चूर्ण कर सकता है :