पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/११४

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चढयौ साहि साहाब करि बुद्धि सार्ज । करी पंच फौज सुभं तथ्य राजं ।।
वरं मद्द वारे अकारे गमनं । हलै रत चौंसह वैरत वानं ।। ४०
षरौ फौज में सीस सुविहान छव । तिनं देपते कंपई चित्त सर्व ।।
तहा धारि हथ नारि कनत पच । .................।। ४१
तहां लष्प पाइक पंतां स्पेनं । तहां रव वैरम्प की बनी रेषं ।।
तहां तीन पाहार में मत्त जोर । तिनं गज्जतें मंद मवान सोरं ।। ४२

तहां सत्त उमराव सुरतान जोटं ।
मनो पेपियै मध्य साहाब कोर्ट ।।
इमं सज्ज सुरतान रिन चडि अप्पं ।
बिना राह बहुत को सतप्पं ।। ४३, स० ४३

और साँभर भूमि में पृथ्वीराज की मृगया यात्रा का एक अंश भी देखिये :

चढिय राज प्रथिराज । साज चापेट लिए सजि ।।
सभ्य सुभट सामंत । तंग सेना सु तुच्छ रजि ।।
जाम देव का कन्ह । अतताई निडर गुर ।।
मति मंत्री कैनास । राव चामंड जुझ्झ भर ।।
परमार सिंघ सूरन समय । रघुवंसी राजन सुवर ।।
इतनें सहित भर सेन चलि । उडी रेनु आयास पर ।। ५१
वागुर जाल बयल्ल । हिरन बीते सु स्वान गन ।।
कालबूत म्रग विहंग । विवाह तट्टीय चलत बन ।।
सर नाक बंदूक । हरित जन बसन विरज्जिय ।।
गै जिमि गिरिकरि अन्य । अप्प वन संपति सज्जिय ।।
है भारि भई कानन सकल । मग ग दल संचरिय ।।
पिल्लन सिकार चढिय त्रपति । प्रथियराज महि संभरिय ॥ ५२, स० २५

[उपयुक्त छन्द में 'बंदूक' शब्द उक्त छन्द का परवर्ती प्रक्षेप होना सिद्ध करता हैं ।]

उपयम (विवाह) --

रासो में कई विवाहों का उल्लेख है जिन्हें प्रधानतः दो प्रकारों में रखा जा सकता है । एक तो वे हैं जहाँ नाता-पिता की इच्छा से वर विवाह करने आता है और दूसरे वे जहाँ वर और कन्या परस्पर रूपगुण श्रवण से अनुरक्त हो जाते हैं तथा माता-पिता की इच्छा के विपरीत कन्या द्वारा आमंत्रित वर कर देवालय सदृश संकेत-स्थान से उसका हरण करता है और उसके पक्ष वालों को पराजित करके अपने घर पहुँच जाता है जहाँ