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द तासी ने 'राजसूय' शब्द से निष्पत्ति बतलाई । पं० मोहनलाल विष्णु- लाल पांड्या के अनुसार -- "रासो शब्द संस्कृत के रास अथवा राम्रक से हैं और संस्कृत भाषा में रास के 'शब्द, ध्वनि, क्रीड़ा, श्रृंखला, विलास, गर्जन, हृत्य और कोलाहल यादि के अर्थ और रासक के काव्य अथवा दृश्य काव्यादि के अर्थ परम प्रसिद्ध हैं। मालूम होता है कि अंधकार ने संस्कृत भारत शब्द के श रासो शब्द को भावार्थ से महाकाव्य के अर्थ में ग्रहण कर प्रयोग किया है। यह रासो शब्द आजकल की भाषा में भी चलित नहीं है किन्तु अन्वेषण करने से वह काव्य के अर्थ के अतिरिक्त अन्य अनेक अर्थों में प्रयोग होता ना विद्वानों को दृष्टि प्रावेगा, जैसे- 'हमने चौदे के गदर को एक रासी जोड्यो है। कल बहादुर सिंह जी की बैठक में वर ने गदर की रासो गावो हो, फिर मैंने भरतपुर के सूरजमल को रासो गायो सो सब देखते ही रह गये । श्रजी ये कहा रासो है। मैं तो कहल एक रासो में फँस गयौ या तू तुमारे यहाँ नावाव क्यों । श्री राम गोपाल व दिवारिया हैं, बाके ससे में फँस के रुपैया मत बिगाड दीजो । हमने आज विन की रासो निपटाय दीनों है। देखो सब रासो के संग रासो है, करती हैं---

गीत ।। मत काचो तोन्ह राखियो घानी
पान्ह करूँगी अँत रासा
गुर राख, पकावा, सत काचा । इत्यादि ।। १ ।।
जिव लोगन को रास उठेगी तौन्ह के खाक उठावेगा,
हल जोत नहीं पछतायेगा । इत्यादि ।। २ ।।"

बनारस के पं० विन्धेश्वरीप्रसाद दुबे ने 'राजयश:' शब्द से 'रासो' को निकला हुआ माना । प्राकृत में ज के स्थान पर य हो जाता है जिससे 'राय यशः ' हुआ और इससे उनके अनुसार कालान्तर में 'रावसा' बन गया । म० म० डॉ० हर प्रसाद शास्त्री का कथन है कि राजस्थान के भाट, चारण श्रादि रासा ( = क्रीड़ा ) या रासा ( = झगड़ा ) शब्द से 'रासो' शब्द का विकास बतलाते हैं । राजपूताना में बड़ा झगड़ा राता कहलाता है, और


( १ ) इस्स्वार द का लितेराव्थूर ऐंदूई ऐ ऐंदुस्तानी, प्रथम भाग, पृ०; ( २ ) पृथ्वीराज रासो, ( नागरी प्रचारिणी सभा ), उपसंहारिणी टिप्पणी, पृ० १६३-६४; (३) वही, प्रिलिमिनरी रिपोर्ट, पृ० २५ ।