पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/१३०

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[ वस्तुतः इस 'समय' की चटना बीसवें 'पदमावती समय' के बाद की है परन्तु भाषा में अपेक्षकृत आधुनिकता का पुट अधिक होने के कारण इसका अधिकांश अंश प्रति है । वैसे महोबा के शासक परमर्दिदेव उपन्नम परमाल पर पृथ्वीराज का आक्रमण और युद्ध में विजय शिलालेख द्वारा सिद्ध ऐतिहासिक वार्ता है । ]

अतएव रासो के सम्पूर्ण प्रस्तावों के नामों और उनमें वर्णित विविध की यह विस्तृत विवेचना सिद्ध करती है कि इसमें 'सर्ग की वर्णनीय कथा से सर्ग के नाम' बाला नियम पूरा-पूरा लग जाता है।

महाकाव्य की कसौटी पर रासो का अनुशीलन और परिशीलन करने के उपरान्त हम इस योग्य हो गये हैं कि उस पर अपना निश्चित मत दे सकें। इसमें सर्पों का निबंधन है परन्तु किंचित् शिथिलता के साथ, पृथ्वीराज चौहान इसके धीरोदात्त नायक वीर इसका प्रधान रस है, नाटक की सन्धियों इसके कई प्रस्तावों में पृथक रूप से सन्निविष्ट देखी जा सकती हैं, इसकी कथा ऐतिहासिक है जिस पर कल्पना का प्रचुर पुट भी दिया गया है, ( धर्म पूर्वक ) कर्म ही इसका फल है (जो मुक्तिदाता सिद्ध किया गया है), इसका व्यारम्भ देवताओं को नमस्कार और वर्य वस्तु का निर्देश करके होता है, इसमें दलों की निन्दा और सजनों का गुणातुवाद वर्तमान है, इसमें ६९ समय ( सर्ग ) हैं जो बाठ के आठ रुने से भी अधिक हैं, इसके प्रस्तावों ( सर्गों ) में अनेक छन्द मिलते हैं जिनके क्रम में किसी नियम विशेष का पालन नहीं देखा जाता परन्तु वे कथा की गति में बाधा नहीं डालने वरन् उन्हें साधक ही कहा जा सकता है, इसके सर्गों के अन्त में कहीं आगामी कथा की सूचना दी गई है और कहीं नहीं भी, यहाँ तक कि ने पूर्वापर सम्बन्ध से रहित हैं परन्तु उन्हें परस्पर जोड़ने वाला पृथ्वीराज का उत्तरोत्तर विकसित जीवन व्यापार है, इसके वस्तु-वर्णन की कुशलता इतिवृत्तात्मक अंश को सरस करने वाली है, इसका नाम महाराज पृथ्वीराज के चरित्र के नाम से 'पृथ्वीराज रासो' है और इसमें सर्गों का नाम उनकी वर्णनीय कथा के आधार पर रखा गया है । अस्तु कतिपय त्रुटियाँ होने पर भी हिन्दी के इस प्रबन्ध काव्य का महाकाव्यत्व निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है। पं० मोहनलाल विष्णुलाल पांड्या, राधाकृष्ण दास और श्यामसुन्दर दास ने इसको महाकाव्य माना था', बाद


१. पृथ्वीराज रासो [ ना० प्र० स० ], ( उपसंहारिणी टिप्पणी ) पृ० १६५ ;