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रूपान्तर

असिय तथ्य तोषार सजउ पष्वर सायद्दल ।
सहस हस्ति चवसहि गरुत्अ गज्जत महाबल ।।
पंच कोटि पाइक सुफर पारक्क धनुद्धर ।
जुध जुधान वर वीर तो न बंधन सहन भर ।।
छत्तीस सहस रन नाइबौ विही निम्मान ऐसो कियौ ।
जै चंद राइ कवि चंद्र कहि उदधि बुड्डि कै घर लियौ ।।

— रासो, पृष्ठ २५०२, पद्य २१६.

(४) मूल

जइतचंदु चक्कवइ देव तुह दुसह पयाण्उ,
धरणि घसवि उद्धसर पडइ रावह भंगायओ ।
सेमु मणिहिं संकिपर मुक्कु हारखरि सिरि खंडोंओ,
तुट्टओ सो हरधबलु भूलि जसु चिय तणि मंडियों ।
उच्छलीउ रेणु जसरिंग गय सुकवि व (ज) ल्हु सच्चउ चबइ,
वग्ग इंदु बिंदु भुयजुअलि सहस नत्रण किया परि मिलइ ।।

८८९ पद्यांक ( २७६ )

अपभ्रंश के इन छन्दों के आधार पर मुनिराज ने लिखा, ४ पद्यों में से तीन पद्य यद्यपि विकृत रूप में लेकिन शब्दश: उसमें हमें मिल गए इससे यह प्रमाणित होता है कि चंद कवि निश्चितता एक ऐतिहासिक पुरुष था और वह दिल्लीश्वर हिंदुसम्राट् पृथ्वीराज का समकालीन और उसका सम्मानित एवं राजकवि था । उसीने पृथ्वीराज के कीर्तिकलाप का वर्णन करने के लिए देश्य प्राकृत भाषा में एक काव्य की रचना की थी जो पृथ्वीराज रासो के नाम से प्रसिद्ध हुई । .... इसमें कोई शक नहीं कि पृथ्वी- राज रासो नाम का जो महाकाव्य वर्तमान उपलब्ध है उसका बहुत बड़ा भाग पीछे से बना हुआ है । उसका यह बनावटी हिस्सा इतना अधिक और विस्तृत है, और इसमें मूल रचना का अंश इतना ग्रल्प है और वह भी इतनी विकृत दशा में है, कि साधारण विद्वानों को तो उसके बारे में किसी प्रकार की कल्पना करना भी कठिन है !....मालूम पड़ता है कि चंदकवि की मूल कृति बहुत ही लोकप्रिय हुई और इसीलिए ज्यों ज्यों समय बीतता गया त्यों त्यों उसने पीछे से चारण और भाट लोग अनेकानेक नये नये पद्म बनाकर मिलाते गये और उसका कलेवर बढ़ाते गए । कण्ठानुकण्ठ उसका प्रचार होते रहने के कारण मूल पद्यों की भाषा में भी बहुत कुछ परिवर्तन