पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/१३५

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मूल पृथ्वीराजरासो की रचना एक प्रकार का थी न कि कोई आधुनिक भारतीय साया और एक नवीन भाषा के प्रारम्भ की अपेक्षा रासो भाषा साहित्य की परम्परा की देन है प्रकाशित रासो व्यापक अर्थ में (राजस्थानी ) हिंदो की पुरानी रचना है और कभी सुलभ होने पर उसका मूल अपभ्रंश रूप हिंदी और अंश मात्राओं के सन्धि- युग की रचना सिद्ध होगा अस्तु उसे उत्तर कालीन अपभ्रंश अथवा प्राचीन हिंदी का महाकाव्य कहने में कोई आपत्ति नहीं दीखती | राजपूताने के विद्वानों तथा जैन-संग्रहालयों के संरक्षकों के दत्तचित्त होकर खोज करने पर भी अभी तक रचित मूल रासो का संवान नहीं मिला है परन्तु डॉ० दशरथ शर्मा और मीनाराम रंगा द्वारा रासो के बीकानेरी संस्करण के 'यज्ञ विध्वंस, सम्पौ ६' के निम्न छन्द जो सभा बाले प्रकाशित रासो के बालुका राइ सम्यौ ४८ के छन्द २२-६५ के अन्तर्गत किंचित् पाठान्तर वाले रूप हैं, उनका अपभ्रंश में रूपान्तर सिद्ध करता है कि उपलब्ध रासो की भाषा तथा अपभ्रंश में बहुत ही थोड़ा अन्तर है यहाँ तक कि उनकी कई पंक्कियाँ सर्वथा समान हैं :- - बीकानेरी संस्करण रूपान्तर छन्द पद्धडी परा कलि अछपथ कमउज राउ | तत सील रत घर धर्म चाउ || वर अछ भूमि हम राय अलग्ग | पंग राजसू जग || सुद्धिय पुरान बलि बंस वीर | भुवयोलु लिखित दिख्ये सहीर || छिति छत्रबंध राजन समान | जितिया सवल हथबल प्रधान || पुछ समंत परधान तब्व | हम करहि जग्गुजिहि लहाह कव्व ॥ दीय मंत्री सुजांन । कलजुग नहीं अरजुन समांनु || उत्तरु त पद्धटि कलिहि अच्छ पह कणउज राउ | सत सील रत घरि घम्मि चाउ || बरि ऋच्छ भूमि हय राय अग पहविद्य पंग राज अ-जग्ग ॥ सोहिवि पुराण वलि वंस वीरु | भूगोलि लिखिन देक्लिा सुहीरु || लिइ छत्तबंध रामा समाण | हृयवलप्पांण || पहाण तव्य | लभइ कव्व || मंतित्र सुजाणु । कलिजुगई राहि अज्जुरा तमाणु सयल जिसउ पुच्छियउ सुमंत करहुँ जग्ग जिह उत्तर त दिशा १. बृहत कथा कोष, हरिवेणाचार्य, सम्पादक डॉ० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, सिंधी जैन ग्रन्थमाला, संख्या १७, सन १६४३ ३०. रिव्यू. १० १३: