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रूप कहना पड़ेगा जिसमें 'वैठिकाने की भावा' होते हुए भी उसका अधिकांश ब्रज-भाषा व्याकरण पर आश्रित है और जिस पर युगीन प्रादेशिक राजस्थानी का प्रभाव अन्य भाषागत विशेषताओं की अपेक्षा अधिक है। रासो के आदि'समय'में लिखा है-- 'जो पढव तत्त रातो सु गुर, कुमति मति नहिं दरसाइय" अर्थात् जो श्रेष्ठ गुरु से रासो पढ़ता हैं वह दुर्मति का प्रदर्शन नहीं करता । इस युग में रासो वांछित सद्गुरु वही है जो प्राचीन व्रज, डिंगल और गुजराती भाषायें तथा उनके साहित्य, संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषायें तथा उनके साहित्य, तुलनात्मक भाषा-विज्ञान, राजस्थान की प्रादेशिक परम्परायें, इतिहास, काव्य-शास्त्र, प्राचीन कथा-सूत्र, काव्य-रूढ़ियाँ, महाभारत, पुराण और नीति-ग्रन्थों से कम से कम भलीभाँति परिचित है । वही राजस्थान के इस गौरवपूर्ण काव्य को समझने तथा प्रक्षेपों को दूर करने का वास्तविक अधिकारी है। आज हमें ऐसी प्रतिभा वाले अनेक सद्गुरुत्रों की नितान्त आवश्यकता जो इस महाकाव्य का उद्धार करें ।

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रासो काव्य-परम्परा

अपभ्रंश, गुजराती और राजस्थानी भाषाओं के अनेक रास, रासा और रासो काव्य ग्रन्थ साक्षात् और सूचना रूप में प्रकाश में या चुके हैं जो 'पृथ्वीराज रासो' से पूर्व और पश्चात् की रासो काव्य की अक्षुण्ण परम्परा के प्रतीक हैं ।

श्रीमद्भागवत् में 'रासोत्सवः सम्प्रवृत्तो गोपीमण्डलमण्डित : ' के'रास' शब्द का प्रयोग गीत-नृत्य के लिये हुआ है जिसका वर्णन इस प्रकार है--'जिनके मुख पर पसीने की बूँदें झलक रही हैं और जिन्होंने अपने केश तथा कटि के बन्धन कस कर बाँध रखे हैं वे कृष्ण-प्रिया गोपियाँ भगवान् कृष्ण का यशोगान करती हुई विचित्र पद-विन्यास, बाहु-विक्षेप, मधुर मुस्कानयुक्त कुटि विलास, कमर की लोच, चंचल चंचल और कपोलों के पास मिलते हुए कुंडलों के कारण मेघमंडल में चमकती हुई चपला के समान सुशोभित


१. छं० ८८, स०;

२. स्कंध १०, अध्याय ३३, श्लोक ३;