पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/१४२

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हुई"। 'रास' में पद आदि अनेक रागों का प्रयोग भी किया जाता था ।" बारहवी-तेरहवीं शताब्दी के जिनदत्त सूरि विरचित अपभ्रंश नीति काव्य'चर्चरी' में लिखा है-- 'जहाँ रात्रि में रथ भ्रमण नहीं किया जाता,जहाँ लगुरास करने वाले पुरुषों का निषेध है,जहाँ जल क्रीड़ा में ग्रान्दोलन होता है मूर्तियों का नहीं वहाँ ( व्याकरण ) महाभाष्य ( पतंजलि ) के आठ आहिको का अध्ययन करनेवाले के लिये माघ- मास में माला धारण करने का निषेध नहीं है' तथा उनके 'उपदेशरायनरास' में छाया है-- 'जो सिद्धान्त के अनुसार कार्य करते हैं उन्हें स्तुति और स्तोत्र पाठ उचित रूप से देवताओं के अनुसार करना चाहिये । तालारासक भी रात्रि में नहीं करते और दिन में भी पुरुषों के साथ लगुडरास नहीं किया जाता' ४ । अस्तु लगुडस और तालारास की विधि और निषेध की सूचना के साथ बारहवीं शताब्दी में उनका प्रचलन भी सिद्ध होता है । कृष्ण की रासलीलायें दिखाने वाली रास मंडलियाँ आज भी उत्तर भारत में अतीत नहीं हैं । गेम-नाट्यों के आविष्कर्ता कोहल, शारदातनय, ५ आचार्य


१. पादन्यासैर्भजविधुतिभिः सम्मितैर्भविलास-
भज्यन्मध्यैश्चलकुचपटैः कुण्डलैर्गण्डलोले ।
स्विन्मुख्य: कबररसना ग्रन्थयः कृष्णवध्वी
न्यस्तं तडित इव ता मे चक्रे विरेजुः ॥ १०-३३-८;

२. तदेव ध्रुवन्निन्ये तस्यै मानं च यदात् ।। १०-३३ १०, श्रीमद्भागवत्

३. जहिं रहि रहममणु कमाइ न कारियइ
लउडारसु जहिं पुरिसु विदितउ वारियर ।
जहिं जल कीडंदोलण हुति न देववह
माहनाल न निसिद्धी कहाहि ॥ १६६

४. उचिय युत्ति पाठ पढिनहिं, जे सिद्धतिहिं सहु संधिजहिं ।
तालारामु विदिति न रथशहि, दिवसि विलउडारसु सहुं पुरिसिंहिं । ३६।।;

५. तोटकं नाटिका गोष्ठी संल्लाए शिल्पकस्तथा
डोम्बी श्रीगदितं भागो भागी प्रस्थानमेव च ।
काव्यं च प्रेक्षणं नाट्यरासकं रासकं तथा उल्लोष्यक हल्लीसमथ दुर्मल्लिकाऽपि च काव्यवल्ली महिलका व पारिजातकमित्यपि
एतानामान्तरै; कैचिद्राचायें कथितामपि ॥

भावप्रकाशनम् ६० ६५४