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अभिराम होता है।' इसके उपरान्त उन्होंने 'रासा' छन्द के नियम दिये हैं कि इसमें इक्कीस मात्रायें, अन्त में तीन लघु और चौदह मात्राओं के बाद यति होती है । ग्राचार्य हेमचंद्र के 'छन्दोनुशासनम्'३ तथा अज्ञात रचना 'विदर्पणम्' ४ के 'शसावलय' नामक छन्द तथा रत्नशेखर सूरि के 'छन्द: कोश:' के 'आहारा' ( आभाणक छंद के नियम 'सा' से मिलते हैं जिससे ये एक छन्द ही भिन्न नाम प्रतीत होते हैं । श्रहमाण के 'संदेश रासक' छंद २६ की व्याख्या में 'हाउ' का दूसरा नाम 'रासउ' भी मिलता है। इस विषय में जर्मन विद्वान डॉ० आसडॉर्फ भी इसी निर्णय पर पहुँचे हैं। भानु जी ने बाइस मात्रायों वाले 'महारौद्र' समूह के जिस 'रास' छंद का उल्लेख किया है वह 'रासा' से भिन्न है ।

'पृथ्वीराज रासो' में 'रासा' छंद पाँच स्थलों पर प्रयुक्त हुआ है ।"


१. बत्ता छड्डाणश्राहि पद्धडिया (हिं) सुरणरूपहिं ।

रासासबंधो कव्वे जगमगा हिरामत्री होई ।। ८-४९;

२. एक्कवीस मन्ता शिहराउ उद्दामगिरू

चउदउसाइ विस्साम हो भगत विरइ थिरु

रासबंधु समिद्धु एउ अहिरामअरु

लहुअतितिश्रवसा विरश्रमहुर अरु । ८-५० ;

३. षोऽजचः पौ रासाबलयम् । ५-२६ तथा उदाहरण छन्द ३४;

४. रातावलय यो अजटगण: पस्तश्च वस्तुवदने तु ।

पगणो अजटो मज्भकटगणो अजदश्च पश्च ॥ ए २५, ५० बी०

ओ० आर० आई०, जिल्द १६, भाग १-२, १० पृ०८८;

५. मत्त हुवइ चउरासी चऊपर चारि कल

तेसठि जोणि निबंधी जाणहु चहुयदल ।

पंचकलु वज्जिज्ज गणु सुदुवि गणहु

सोबि अहा छंदु जि महियलि बुह मुहु ।। १७।

६. मत्त होहि चरासी चहु पय चारि कल

ते सठि जोणि निबखी जाणहु बहु दल ।

पंचक बज्जिज्ज गर सुद्धि व गहु

सोति श्राहाराज छंदु के वि रास मुखहु ।।

७.अपभ्रंश स्शडियन ( अर्मन ), पृ० ४९ ।

८. बंद: प्रभाकर, पृ० ५९।

९. स० ५० छ० २२० स० ४७, छं०१७६१ स० ६१ छं० १६२२-२४१