पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/१५४

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को नष्ट कर रही हैं; हे कवि, इसके पार जाना दुस्तर है; चौहान को प्रसन्न करने से क्या होगा ?' कवि ने उत्तर दिया कि तुमने बात उचित कही परन्तु मेरे हृदय में यह अंदेशा है कि मैं पिथ्थल-नरेश (चौहान) का पूर्व जन्म का ऋण चुकाता हूँ। उसकी पत्नी ने कहा कि यदि राजा का ऋण चुकाते हो तो गोविन्द का स्मरण क्यों नहीं करते । कवि विस्तार पूर्वक समझाता है कि कमलासन सर्वव्यापी हैं। पत्नी कहती है कि यदि ऐसा ही है तो राजा की कीति मत गाओ वरन् हरि के अंग प्रत्यंगों का रूप और उनके चरित्रों का वर्णन करके सुनाओ जिससे मुक्ति प्राप्त हो । अन्तत: कहता है कि हे भामिनि, मुझसे तत्व पूछती हो तो कान देकर सुनो, मैं तुमको उसका (यथावत्) वर्णन करके दिखाऊँगा :

कोहौ भनि सौ कंत इम । जो पूछै तत मोहि ।।
कान धरौ रसना सरस । ब्रन्नि दिवाऊं तोहि ।। १,७८३

उपयुक्त छन्द रासो के 'आदि समय' का अन्तिम छन्द है । इसके पश्चात् 'अथ दशस' या 'दशावतार वर्णनं नाम द्वितीय प्रस्ताव' प्रारम्भ होता है जिसका पृथ्वीराज की कथा से कोई सम्बन्ध नहीं है अस्तु 'उसके परवर्ती प्रक्षेप होने का निर्देश किया जा चुका है।' विष्णु के दस अवतारों के वर्णन वाले इस द्वितीय प्रस्ताव को कभी परवर्ती काल में रासो की कथा से संलग्न करने के लिये आदि समय के निर्दिष्ट ७६२-८३ छन्दों में नर ( मनुष्य ) और नारायण की पृथकता तथा नारायण की महिमा सूचक आख्यान चंद्र और उसकी पत्नी के वार्तालाप के मिस प्रस्तुत किया गया है । आश्चर्य तो तब होता है जब कवि-पत्नी छं० ७६१ में दिल्लीश्वर का गुण- गान करने के लिये कहती है और फिर छं० ७६२ में 'निसि' के स्थान पर 'दिवस' हो जाता है तथा छं० ७६३ में यह अकारण अपनी जिज्ञासा पर ही शंका कर बैठती है । द्वितीय प्रस्ताव के उपसंहार में कवि कुछ चौंक कर कह बैठता है कि राम और कृष्ण की सरस कीर्ति कथन हेतु अधिक समय वांछित है, ग्रायु थोड़ी है और चौहान का भार सिर पर है:-


१. छं० ७६६-६७, स० १ ;

२. छं० ७६८, वही;

३. छं० ७६६, वही;

४. छं० ७७१-८०, वही ;

५. छं० ७८१-८२, वही;

६. चंद वरदायी और उनका काव्य, विपिनविहारी त्रिवेदी, पृ० ११४;