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राम किसन किती सरस । कहत लगै वहु वार ।।
छुच्छ श्राव कवि चंद की । सिर चहुद्याना भार ।। २,५८५;

इसके बाद योगिनिपुर-सम्राट् की कथा बे रोक-टोक बढ़ चलती है ।

भारत की अनेक प्राचीन कथानक-रूढ़ियाँ साहित्य में प्रयुक्त हुई हैं। उन पर विशद रूप से विचार करके उनके मूल स्रोतों के अनुसंन्धान का प्रयत्न करने वाले विदेशी विद्वानों में बेनफे (Benfey),कोलर (Kohler),लिब्रेट (Liebrecht),कून (Kuhn ),हटेल (Hertel), मारिस ब्लूमफील्ड (Maurice Bloomfield), टानी (Tawney), पेंज़र ( Penzer) प्रभृति नाम चिरस्मरणीय रहेंगे। 'पृथ्वीराज रासो' में भी हमें इन प्राचीन कथा-सूत्रों के दर्शन होते हैं । उनमें से कुछ पर हम यहाँ विचार करेंगे ।

शुक और शुकी का कथा के श्रोता और वक्ता रूप में उपस्थित किया. जाना एक ऐसा ही सूत्र हैं । महाभारत के राजा परीक्षित को श्रीमद्भागवत् सुनाने वाले व्यास के परम ज्ञानी पुत्र का नाम शुकदेव था ही अस्तु मानव की बोली समझने और बोलने की क्षमता रखने वाले शुक को भी कवि-कल्पना ने ज्ञानी बना दिया । पुराणों में कश्यप की पत्नी( कहीं पुत्री )शुकी ही शुकों की आदि माता हैं तब इन दौहित्र पक्षियों को मानव के रहस्यों का जानकार होने में कवि कैसे सन्देह करता । शुक जब मानव की बोली का अनुकरण कर लेता है तब आठवीं शताब्दी के मंडन मिश्र के भवन में मानवीय ज्ञान-सम्पन्न शुकी 'स्वतः प्रमाणं परतः प्रमाणं चादि दार्शनिक विचारात्मक उच्चारण क्यों न करे ।' और बारा का वैशम्पायन शुक जब पूर्व जन्म की कथायें कह सकता है? तब रासो को शुकी की जिज्ञासा-पूर्ति हेतु क्या वह बहुज्ञ, पृथ्वीराज के जीवन में घटनेवाली कथाओं का वर्णन भी नहीं कर सकता ? चंद के परवर्ती विद्यापति ने अपने चार 'पल्लव' वाले अवहट्ट काव्य


१.स्वतः प्रमाणं परत: प्रमाणं कीराङ्गना पत्र गिरं गिरन्ति ।

द्वारस्थानान्तरसंनिरुद्धा जानीहि तन्मण्डनपडितकः ॥ ६

फलप्रदं कर्म फलप्रदोज: कीराङ्गन यत्र गिरं गिरन्ति ।

द्वारस्थनीडान्तरसंनिरुद्धा जानीहि तन्मण्डनंपण्डितौक: ।। ७

जगद्व्र ुवं स्वाज्जगद्भवं स्यात् कीराङ्गना यत्र गिरं गिरन्ति ।

द्वारस्थनीडान्तरसंनिरुद्धा जानीहि तन्मण्डन पण्डितौकः ।। ८सर्ग: ८;

२.वैशम्पायनस्तु स्वयमुपजातकुतूहलेन सबहुमानमवनिपतिना पृष्ठो

मुहुर्तम व्यावा सादरमब्रवीत् - 'देव, महतीयं कथा । यदि

कौतुकमाकार्यताम्--, कादम्बरी, पूर्वभाग: ;