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इह चरित दुज देष कै । पछ जुगिनिपुर जाइ ।। ११३

सैंतालिस 'सुक वर्णन समय' में मदन ब्राह्मणी के घर में पढ़ने वाली संयोगिता तथा अन्य कुमारियों की तुलना क्रमश: चन्द्रमा और तारागणों से करते हुए (छं ०१), पूर्व 'समय' वर्णित शुक शुकी दम्पति के दिल्ली की ओर उड़ने का वर्णन आता है :

इति हन्फालय छंद । गुर च्यार नभ जिम चंद ।।
उड़ चले दंपति जोर । चितः स पिथ्थह और ।। ४ और छं० ५;

और शुक का ब्राह्मण-वेश में पृथ्वीराज के पास जाने का समाचार मिलता है :

नर भेष घरि साकार । दुज भेज मुक्कयो सार ।।
दिवि ब्रह्म भेस प्रकार । किय मान व अपार ।।६
सोई दुज दुजनी करे । बहु तरुवर उडि जानि ।।
सो सहार संजोग किय। तीयह रम्य सु थान ।। ७,


सम्भलत धवल सर साहुलि सम्मति, आलूदा ठाकुर अलल ।।
पिंड बहुरूप कि भेत्र पालटे, केसरिया ठाहे क्रिंगल । ११३, वेलि;

तथा

गंगा कर गीताह, श्रवण सुखी अरु साँभली ।
जुगनर वह जीताह, वेद कहै भागीरथी ।४, गंगालहरी;

'ढोला मारू रा दूहा' में भी इस शब्द का इसी अर्थ में प्रयोग मिलता है:

ढोलइ मनि आरति हुई , साँभलि ए विरतंत ।
जे दिन मारू विरा गया, दई न ग्यॉन गिरांत ।। २०८,

और सम्भवत: तुलसी ने भी अपने 'मानस' में निर्दिष्ट अर्थ में 'संभारे' का प्रयोग किया है :

बंदि पितर सब सुकृत सँभारे । जो कछु पुण्य प्रभाव हमारे ।। दोहा २५४

और २५५ के बीच में, बालकाण्ड;

शुक शुकी सम्बन्धित रासो के कई अन्य स्थलों पर 'संभलो' का प्रयोग ‘समझना' अथवा ‘स्मरण करना' के अर्थ में हुआ है; यथा— सुकी कहै क संभरौ, कहैं सुकी सुक संभलौ; सुक्क सुकी सुरु संभरिय; आदि ।

२. शुकी रूपी ब्राह्मणी संयोगिता के पास अभी नहीं जाती जैसा कि सभा वाले रासो (पृ० १२७५ ) के सम्पादकों ने इस छन्द के श्राधार है ।