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फिर ये शुक शुकी, द्विज-द्विजी के रूप में पृथ्वीराज के पास पहुँच कर उन्हें संयोगिता के प्रति आकृष्ट करते हैं :

कहै सु दुज दुजनीय । सुनौ संभरि त्रप राजं ।।
तीन लोक हम गवन । भवन दिष्त्रे हम साजं ।।
जं हम दिषिय एक । तेह नभ तड़िक प्रकारं ।।
सदन बंसनिय ग्रेह । नाम संजोगि कुमारिं ।।
सित पंच कन्प तिन मध्य श्रव । अवर सोभ तिन समुद बन ।।
आकास मदि जिम उडगनिन । चंद विराजै मन भुवन ।।८,

और कान्यकुब्ज की राजकुमारी का रूप, वयः सन्धि, वसंत सदृश अङ्कुरित यौवन तथा नख-शिल यादि का वर्णन करके पृथ्वीराज को उस पर आसक्त कर देते हैं (छं० ९-७७ ) ।

तदुपरान्त पृथ्वीराज द्वारा मनोवांछित द्रव्य-प्राप्ति का प्रलोभन पाकर, ' वे शुक शुकी कन्नौज-दिशा की ओर उड़ जाते हैं और मदन ब्राह्मणी के घर जा पहुँचते हैं:

दुज चलै उड्डि कनवज्ञ दिसि । येह सपत्तिय बंभनिय ।। ७८,

और की ब्राह्मणी-रूप में संयोगिता से मिलकर, पृथ्वीराज के रूप- गुणानुवाद के प्रति उसे आकृष्ट करती है ( छं० ७६-८७ ), जिसके फलस्वरूप राजकुमारी दिल्लीश्वर के वरण की अभिलाषा मात्र ही नहीं करती वरन् वैसा न होने पर जल में डूब मरने का निर्णय कर लेती है :

यो वृत लीनो सुंदरी । ज्यों दमयंती पुब्ब ।।
कै हथ लेबौ पिथ करौं । के जल मध्यें दुब्ब ।। १०१,

तथा दूसरी ओर पृथ्वीराज भी संयोगिता के प्रेम में अहर्निश चूर है :

विय पंगानि कुमारि सुमार सुमार तजि ।
घरी पहर दिन राति रहै गुन पिथ्थ भजि ।।
भेद भेजें और जोर मन में लजिहि ।
पुच्छहि त्रिबत्त न तत प्रकास किहि ।। १०२,

इस प्रकार देखते हैं कि शुक शुकी इस कथा के श्रोता-वक्ता मात्र ही नहीं रहते वरन् उसके पात्र बन जाते हैं । अवसर के अनुकूल अपना रूप


१. देउ द्रव्य मन वंछ । जाइ प्रमुधै तिथ श्राजं ।। ७८;
२. जिमि जिमि सुंदरि दुजि बयन । कही जु कथ्य सँवारि ।।
बरनन सुनि प्रथिराज कौ । भय अभिलाष कुश्रारि ।। ८८;