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परन्तु फिर रानी को रुष्ट देखकर अपने को एक रात्रि के लिये संयोगिता के शयनागार में पहुँचाने के लिये कहता है ( इं० १५ ) । सौत-बैर के होते हुए भी इंच्छिनी संयोगिता से कपट-प्रीति बढ़ाती हैं और शुक को पिंजड़े सहित उसे दे देती हैं (छं० २६-२८ और ४७ ) । सरला संयोगिता शुक को अपने शयनागार में ले जाती है और वहाँ रहता हुआ वह शुक संयोगिता के हाव-भाव, शारीरिक सौन्दर्य, रति-क्रीड़ा आदि सभी कुछ तो देखता है (छं० ६७-८६ ) ।

पृथ्वीराज राठौर ने कृष्ण और रुक्मिणी की रति-वर्णन का प्रसंग 'दीठौ न सु किहि देवि दुजि' और 'अदिठ अलुत किम कहयौ आवै' कह कर टाल दिया, परन्तु इस वर्णन हेतु ही तो रासोकार ने शुक का मिस गढ़ा था फिर उक्त विवरण वह क्यों न प्रस्तुत करता ।

कई दिवस पश्चात् जब शुक इंच्छिनी के पास लौट आया तो रानी ने स्वभावतः ही संयोगिता का रति-रास पूछा ( छं० ९०-१ ) और उस शुक ने उस गुप्त प्रकरण का उद्घाटन इंन्च्छिनी तथा उसकी सखियों के आगे करना प्रारम्भ कर दिया :--

जो रस रखनन अनुदिनह । अधर दुराइ दुराइ ।।
सो र दुज कन कन करयौ । सपिन सुनाइ सुनाइ ।।
सबिन सुनाइ सुनाइ । हिय सुचि सुचि लज मन्नह ।।
सुथल विथत थत कंपि । नेन नटकीय नहन्नह ।।
जियन मरन भिल मैन । कह्यौ श्रदभुत प्रिय रस ।।
ए रस अंतर भेद । प्रीय जानै त्रिय जौ रस ।। १०३

इंच्छिनी द्वारा संयोगिता के प्रच्छन्नों के विषय में पूछने पर ( डं० १०४) शुक ने निम्न वर्णन किया :

क्रिसल थूल सित असित । थान चव एक एक प्रति ॥
पानि पाइ कटि कमल । सथल रंजे सुच्छिम ऋति ॥
कुच मंडल भुज मूल । नितंब जंघा गुरुधत्तं ॥
करज हास गोकन । मांग उज्जल सा उत्तं ॥
कुच अत्र कच द्विग महि तित्त । स्यामा अँग सब्बं गवन ॥
घोडस सिंगार सारूव सजि । सांइ रँजे संजोगि तन ॥ १०५,

और'तदुपरान्त उनके नख-शिख का विस्तृत परिचय देकर (छं० १०६-२६), दम्पति के पारस्परिक आकर्षण और अनुराग की चर्चा की (छं० १२७-४०)