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कामिनी के द्वारा जो कुछ सखियों के सामने कहा गया उसका पुनः शुक और शिशु सारिका द्वारा अपने श्रवण-पथ का अतिथि बनना भाग्यवानों को ही प्राप्त होता है' :

दुर्वारां कुसुमशरव्यथां वहन्त्या

कामिन्या यदभिहितं पुरः सलीनाम् ।

तद्भूयः शुकशिशुसारिका भिरुक्तं

धन्यानां श्रवणपथातिथित्वनेति ॥ ७, अङ्क २ ;

सारिका द्वारा प्रकाशित इस गुप्त प्रेम का निष्कर्ष सागरिका और वत्सराज के विवाह की सुखद परिणति है ।

'सतत रसस्यन्दी' पद्यों के रचयिता, सातवीं ईसवी शताब्दी के लगभग वर्तमान, मुक्तक काव्य में श्रृङ्गार के अप्रतिम चित्रकार तथा आनन्द-वर्द्धन के शब्दों में 'प्रबन्धायमान' रस कवि मरुक ने ऐसे शुक का उल्लेख किया है जो एक दम्पति का रात्रि में सम्पूर्ण प्रेमालाप सुनकर प्रात:काल उसे गुरुजनों (सास, श्वसुर आदि ) के सामने दुहराने लगा था; ब्रीड़ा से पूरित वधू ने उसकी वाणी निरुद्ध करने के लिये अपने कान के कर्णफूल का पद्मरागमणि उसके सामने रख दिया, जिस पर उसने दाहिम फल की भ्रान्ति से चोंच मारी और अपना आलाप बंद कर दिया' :

दम्पत्योर्निशि जल्पतोगृह सुकेनाकर्ति यद्वच-

स्तत्प्रातर्गुरुसन्निधौ निगदितः श्रुत्यैव तारं वधूः ।

कर्णालम्बितपद्मसकलं विन्यस्य स्वञ्चयाः पुरो

वीडार्ता प्रकरोति दाडिमफलव्याजेन वाग्बन्धनम् ॥१६,

श्रमस्तकम्;

रासो में भी एक शुक भेदिया का कार्य करता हुआ पाया जाता है । परन्तु वह निर्दोष नहीं वरन् पूर्ण अपराधी है । सपली-मर्दन के उद्देश्य से प्रेरित होकर, दूत-कर्म का कृती वह वाचात शुक, विग्रह का मूल होकर भी अन्त में स्वयं उसकी निवृति का हेतु बनकर धृष्ट-दूतत्व करने वाला कहा जा सकता है । बासठवें 'शुक चरित्र प्रस्ताव' में इसी शुक का वृत्तान्त है। पृथ्वीराज की महारानी इंच्छिनी, संयोगिता के आगमन के उपरान्त, राजा को सर्वथा उसके वशीभूत पाकर सपत्नीक डाह से जलती हैं (छं० ३- ८ ) । एक दिन वे अपने पालतू शक को अपने आन्तरिक दाह की सूचना देती हैं ( छं० १०-१३ ) । शुक पहले तो कहता है कि यदि मुझसे. इस प्रकार की बातें अधिक करोगी तो मैं चौहान से कह दूँगा ( छं० १४ ) ।