पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/१७४

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जीवं वारि तरंगं । श्रायासं नवै दुष्ष देहं ।।
भावि भावि गतनं । किं कारनं दुष्ष बालायं ।। १७४

इंच्छिनी के यह कहने पर कि सौत-क्लेश नहीं भुलाया जा सकता (छं० १७५-७६ ),शुक ने उन्हें राजमहल छोड़ने की सलाह दी (छं० १७७) और रानी जाने के लिये प्रस्तुत होने लगीं (छं० १७८ ) । यह समाचार पाकर पृथ्वीराज ने रानी से इस व्यवहार का कारण पूछा ( छं० १७६ ),तब शुक ने उत्तर दिया कि इसका मूल संयोगिता की दृष्टि है :

वर्क दिष्ट संजोग की ।सुक कहि त्रयहि सुनाय ।।
एक अचिज्ज इंछिनिय । में ग्रह दिडी राइ ।। १८०;

राजा ने कहा कि रे शुक ! तूने ही वह मंत्र दिया और अब तू ही नाना प्रकार की बातें गढ़ता है (छं० १८१ ) । शुक ने कहा कि अच्छा अब ग्राप दोनों एक दूसरे को समझा लें (छं० १८२ ) । और अन्ततः राजा के मनाने पर रूठी रानी ने अपना मान छोड़ दिया (छं० २८४-८५ ) ।

यदि शुक दूत हो सकता है तो सोम और दूध को जल से पृथक करने की शक्ति वाले, अश्विनी कुमारों और ब्रह्मा के वाहन, अपने श्वेतनिर्मल वर्ण के कारण आत्मा परमात्मा के प्रतीक, विराज, नारायण, विष्णु, शिव और काम के पर्याय नाम तथा उपनिषदों में 'अहं सा' में परिणत हंस के दूतत्व में कौन सी बाधा है, क्योंकि शुक यदि ज्ञानी है तो हंस विवेकी । पेंज़र (Penzer) महोदय का अनुमान है कि नल-दमयन्ती कथा 'महाभारत' में उसी प्रकार है जैसे 'कथासरित्सागर' में उर्वशी-पुरुरुवा की कथा, और यह सम्भवत: वैदिक काल से चली आ रही है । अस्तु, नल-दमयन्ती कथा में हंस दूत का प्रयोग भी पर्याप्त प्राचीन होना चाहिये । 'महाभारत' में वर्णित है कि नल और दमयन्ती क्रमश: विदर्भ और निषध देश के लोगों द्वारा परस्पर रूप-गुण सुनकर अनुरक्त हो चुके थे। एक दिन नल ने अपने उद्यान के हंसों में से एक को पकड़ लिया परन्तु उसके यह कहने पर कि यदि आप मुझे छोड़ दें तो हम लोग दमयन्ती के पास जाकर श्राप के गुणों का ऐसा वर्णन करेंगे कि वह अवश्य वरण करेगी । नल के छोड़ने पर वह हंस ग्रन्थ हंसों के


१. दि श्रोशेन श्राव स्टोरीज, जिल्द ४, अपेंडिक्स द्वितीय, पृ० २७५ ;

२. तयोरहृष्टाः कामोभूच्छ एवतो सततं गुणान् ।

श्रन्योन्यं प्रति कौन्तेय से व्यवर्धत हृच्छयः ॥ १७, अध्याय ५७, वनपर्व

३. दमयन्तीसकाशे त्वां कथयिष्यामि नैषध ।

यथा त्वद्न्यं पुरुषं न सा संस्थति कर्हिचित् ॥२१, वही ;