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'रामायण' और 'कथासरित्सागर' में पाये जाते हैं। 'लिङ्ग-पुराण' में वर्णित हैं कि मनु की ज्येष्ठा और प्रिय कन्या इला, मित्र और वरुण के वरदान से सुद्युम्न नामक पुरुष हो जाती है। बुध के महल में वह क्रमशः स्त्री और पुरुष होती रहती है। स्त्री-रूप में बुध द्वारा वह पुरुरुवा को जन्म देती है और पुरुष सुद्युम्न रूप में उससे तीन पुत्र पैदा होते हैं। सायणाचार्य ने 'ऋक्वेद' के भाग्य में देवताओं के श्राप द्वारा आसङ्ग के स्त्री होने और मेध्यातिथि के बर से उसके पुनः पुरुष होने का बत्तान्त दिया है।

(३) मंत्र-तंत्र द्वारा—जैसे 'वैताल पंचविंशतिका' के मूलदेव की प्रसिद्ध कहानी है, जिसमें अभिमंत्रित गोलियाँ मुँह में रखने से, स्त्री को पुरुष और पुरुष को स्त्री बनाने का कौशल मिलता है।

(४) धार्मिक-धार्मिक विचारों के कारण—जैसे 'दिव्यावदान' की रूपावती जो एक विभुक्षिणी से अपने नव-जात शिशु की रक्षा तथा उसकी क्षुधा-तृप्ति हेतु अपने पयोधर काट कर उसे दे देती है, और अपनी इस दया तथा उच्च विचार के कारण पुरुष हो जाती है। 'धम्मपद-भाध्य' का सोरेय्य नामक व्यक्ति महाकच्चयन के वर्ण के प्रति दुर्भावना करने के कारण स्त्री हो गया था और स्त्री-रूप में छै बच्चों को जन्म देने के उपरान्त उन्हीं ऋषि की कृपा से पुनः पुरुष-रूप प्राप्त कर सका था। लिङ्ग-परिवर्तन सम्बन्धी इस प्रकार के उदाहरण केवल बौद्ध-साहित्य में प्राप्त होते हैं।

(५) यक्ष द्वारा—जैसे 'महाभारत' के शिखंडी की कथा है। 'पञ्चतंत्र' और 'गुलबकावली' में एक देव द्वारा भी लिङ्ग-परिवर्तन सम्बन्धी कथायें मिलती हैं।

डबल्यू नार्मन ब्राउन[१] ने उपर्युक्त प्रकारों की विस्तारपूर्वक विवेचना करते हुए, इस कथा-सूत्र के उद्गम में पैठने का प्रयास किया है। उनका निष्कर्ष है कि एक (लिङ्ग) वर्ग बालों की दूसरे (लिङ्ग) वर्ग वालों में होने की यदा-कदा अभिलाषा, हिजड़ों का स्त्री-रूप में विचरण, प्रेत-बाधाओं आदि के भय के कारण बहुधा बालकों के बालिकाओं सदृश नाम, भक्तों का देवता की प्रीति हेतु स्त्री-रूप धारण (परन्तु साम्ब की भाँति उसका दुरुपयोग करने पर महान् आपसि सूचक), स्त्री-पुरुषों में अर्द्धनारीश्वर सदृश विपरीत यक्ष के शारीरिक लक्षण आदि ने मिलकर इस लिङ्ग-परिवर्तन सम्बन्धी कथा-सूत्र को साहित्य में जन्म दिया होगा और फिर कथा अपनी स्वतंत्र प्रकृतिवश इसे अनुकूल रूप देती गई।


  1. १. चेंज आय सेक्स ऐज़ ए हिन्दू स्टोरी मोदिफ़, जर्नल आय हि अमेरिकन ओरियन्ट्रल सोसाइटी, जिल्द ४७, पृ° ३-२४;